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अनेकान्त
छतरी नहीं ले गए हैं, अत: मैं अपनी छतरी लेकर गांधी भी स्वभाव के बड़े भद्र थे । जो भी व्यक्ति उनके साथ समाधि पर पहुँचा-देखता हूँ कि खूब जोर की वारिश थोड़ा सा भी भद्र व्यवहार करता-वह प्रतिफल मे होने पर भी ये अडोल पासन से बैठे हुए सामायिक कर उनसे कई गुणा भद्र व्यवहार पाता था। उनका हृदयरहे हैं, उनकी यह दृढ़ता देख कर मैं दग रह गया और दर्पण के समान स्वच्छ था जो व्यक्ति जिस भावना के तब तक उनके ऊपर छतरी लगाये पीछे की ओर खड़ा साथ उनसे बात करता, उसे वे तुरन्त जान लेते थे । पर रहा-जब तक कि उनकी सामायिक पूरी नही हो गई। गंभीर स्वभाव के कारण वे उसे अपने चेहरे पर नहीं जब उठे और मुझे छतरी लगाये देखा, तो बोले-कब से पाने देते थे। और वे स्वभाव के तो इतने भोले थे कि तुम यहा पर हो ? मैने ऐसे अवसरों पर अनेक पहुँचे हुए गढ मायावी व्यक्तियो के जाल मे सहज ही फस जाते थे। त्यागियों को सामायिक छोड कर और प्रासन उठाकर यही कारण था कि स्व. बा. छोटेलाल जी के साथ अंतिम भागते हुये देखा है। तथा मध्याह्न सामायिक के समय वर्षों में उनका मनोमालिन्य हो गया था-पर यह सन्तोष ऊंघते हुए और गिरते हुए भी देखा है मगर मुख्तार साहब की बात है कि अन्त मे उन दोनो का पारस्परिक मनोको कभी ऐसी दशा मे देखने का मौका नही मिला। मालिन्य दूर हो गया था।
भर जवानी मे पत्नी-वियोग हो जाने के बाद से वे दिवंगत हो जाने के बाद उनकी कमियों की चर्चा अखण्ड ब्रह्मचर्य का तो पालन कर ही रहे थे-साथ ही करना अपनी ही क्षुद्रता का परिचय देना है । और फिर उनका रसनेन्द्रिय पर भी गजब का कट्रोल था, प्रातः कौन ऐसा व्यक्ति है-जो कि पूर्णरूप से निर्दोष हो-या साय गोदुग्ध, फल और मध्यान्ह में एक बार सात्विक उसमे सासारिक सहज कमिया न हो । पर उनकी जीवन भोजन के अतिरिक्त कभी भी उन्हे मीठी या चटपटी चीजे भर की गई समाज सेवाओं को देखते हुए एक बात सदा खाते नही देखा । प्रातःकाल ४ बजे उठकर गत के १० ही खटकती रहेगी-कि समाज ने उनकी सेवाओं का बजे सोने तक वे त्रिकाल सामायिक करने एवं भोजन के समचित समादर नही किया-बल्कि प्रारम्भ में तो उनके समय को छोडकर निरन्तर अपने कार्य में जुटे रहते थे। सत्कार्यों का भी घोर विरोध किया-जिसे वे अपने दृढ प्रतिदिन १०-१२ घण्टे काम करना उनका नियमित दैनिक अध्यवसाय से सहन करते रहे और अपने कतव्य से कार्य था।
रञ्च मात्र भी नही डिगे। उन्होंने हमारे सामने "न्यावे दिल्ली मे रहते समय तक अपने कपड़े भी अपने
यात्पथः प्रविचलन्ति पद न धीरः" का उच्चादर्श रखा है। ही हाथ से साबुन लगाकर धोया करते थे। एक बार जब वे कपड़े धो रहे थे तो मै उनके ही सामने बैठकर श्री मुख्तार सा० के चले जाने के बाद उनके ट्रस्ट उनकी यह चर्या लिखने लगा। बोले- क्या लिख रहे के उत्तराधिकारियों का और समाज के प्रमुख व्यक्तियों हो ? मैने कहा-यह लिखता हूँ कि मुख्तार सा० कपड़े
का यह परम कर्तव्य है कि वे उनके द्वारा छोड़े हुए कार्यो धोने जैसे छोटे कामों में अपने प्रमूल्य समय का दुरुपयोग को पूरा कराने के लिए अविलम्ब कदम उठावें । वीर करते है । यह सुनकर वे तुरन्त बोले-भाई-यह समयका
सेवामन्दिर में उनके नाम पर एक शोध संस्थान कायम दुरुपयोग नही है बल्कि स्वावलम्बीपन के पाठ का अभ्यास करें और उनकी स्मृति मे एक विशाल स्मृति-ग्रन्थ निकाल है। मैं नहीं चाहता कि कोई मेरे कपड़े घोवे ? अपने हाथ करक अपनी कृतज्ञता प्रगट करें से धोते रहने से हाथों में उतनी शक्ति बनी हुई है। यदि
दिवंगत होने के कुछ समय पूर्व तक उनके पत्र मेरे मैं ऐसा न करता, तो पराधीन तो होना ही पड़ता मेरे पास आते रहे हैं । जिनमें सदा ही खोज-शोध प्रेरणा रही हाथों में वह शक्ति भी नही होती-जो कि प्राज है। यह है। मुझे अत्यन्त दुःख है कि अन्तिम समय में उनके घटना उनके ८० वर्ष होने के बाद की है।
समीप नहीं रह सका-ऐसे जीवन पर्यन्त साहित्य सेवा कुछ लोग उनके रूखे स्वभाव की बात कहते हैं। करने वाले महारथी प्राचार्य श्री मुख्तार सा० को मेरी मगर मैंने यह अनुभव किया है कि वे मितव्ययी होने पर कोटि : कोटि श्रद्धाञ्जलि समर्पित है।