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________________ सीयाचरिउ : एक अध्यय कलंक कुलस्स नासेसुमा जस निययं, मा पडसु दोग्गईए, राम ने रावण के पास दूत भेजा और कहलाया कि मुचसु एय परं पुरधि । तुम सीता को वापिस पहुंचानो अन्यथा युद्ध के लिए तैयार --सीयाचरिउ पृ०६८ हो जायो। रावण अभिमानी था, उमने सीता को वापिस इघर राम जब अपने निवास स्थान पर प्राय और न कर युद्ध किया जिसका नतीजा उम भोगना पडा । सीता को वहाँ न देवा, तब बहुत खेदखिन्न और दु.खी। राम-गवण का युद्ध प्रसिद्ध ही है। उसकी भीषणता का हुए। इतने में लक्ष्मण भी खरदूपण को मारकर पा गया। वर्णन परम्पगनुसार चरितकार ने किया है। अन्त में दानो भाइयो ने सीता को इधर-उधर खोज की परन्तु कही लक्ष्मण के हाथ रावण माग गया। राम लक्ष्मण ने नका में प्रविष्ट होकर सीता को प्राप्त किया। लका में कुछ पता न चला। ममय राज्य कर और विभीषण को लका का राज्य देकर मीता का पता लगाने के लिए चागोर लाग दोडाए राम सीता और लक्ष्मण सहित अयोध्या को चले । अयोध्या और मुग्रीव स्वयं भी पता लगाने के लिए गया। तब पता में राम सीता और लक्ष्मण का भव्य स्वागत हुमा । भरत चला कि गवण मीता को हर कर ले गया है. इसे सुनकर ने जिन दीक्षा ले ली। और राम लक्ष्मण का राज्याभिषेक विद्याधर भय से कॉपने लगे। किन्तु राम लक्ष्मण ने समझा हा। दोनो भाई वहा मूख में राज्य करने लगे। कर उनका भय दूर किया। गम ने हनुमान को अपनी मृद्रिका और सब समाचार देकर कहा-तुम जानो सीता प्रशुभोदय में विवेक : मे मिलकर उसका चड़ामणि लेते पाना, तथा वहाँ का सब कुछ समय के बाद अयोध्या में मीता के सम्बन्ध में समाचार भी लाना, जिसमे मुझे सीता के सम्बन्ध मे प्रत्यय लोकोपवाद की वार्ता सामने आई, गम ने उस कलक से हो सके। बचने के लिए मीता के परित्याग का निश्चय किया। हनुमान ने नका मे पहुँच कर प्रच्छन्न हो गम की यद्यपि लक्ष्मण ने बहुत ममझाया पर राम अपने निश्चय मुद्रिका सीता के अग के वस्त्र पर छोड़ी, उमे देव मीता पर दृढ रहे और कृतान्तवक्त्र सेनापति को बुला कर यह कहने लगी-"राम की यह मुद्रिका यहाँ कैसे प्राई ? जो आदेश दिया कि मीना को वियाबान जगल मे छोड प्रायो। कोई इस मुद्रिकाको यहाँ लाया हो वह प्रकट हो जाय। मेनापति मीता को रथ में बैठाकर ले चला और अयोध्या तब हनुमान ने प्रकट होकर, अपने नाम, स्थान एव कुलादि से बहुत दूर एक भयानक वन में ग्थ को रोककर सीता से का परिचय देते हुए राम का सब समाचार सुनाया। सीता बोला- पाप उतर जाएँ। को विश्वास हो गया कि राम और लक्ष्मण सकुशल है। जब सीता हिसक जन्तुओं से भरे उस विकट वन में वे जल्दी ही यहाँ आयेगे। इससे सीता को प्रसन्ता हुई। उतरी तो भय से काँपने लगी। सेनापति ने रोते हए सीता नमान ने सीता से कहा-अब आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो से कहा- मुझे पाप क्षमा करें, मैने तो केवल स्वमी के गई, भोजन-पान ग्रहण करो। तब सीता ने ग्यारहवे दिन आदेश का पालन किया है। सेनापति सीता की खिन्नमुद्रा, पंचनमस्कार मंत्र का स्मरण कर भोजन किया। तत्पश्चात् वन की भीषणता, नीरवता तथा गर्भ के भार की पीडा इनमान ने सीता से कहा--मेरे कधे पर बैठ जाइए मै को देख कर अत्यन्त द्रवित हो गया। उसने जगल में राम के पास पहुँचा दूं। सीता बोली-पति की ऐसी छोडने का कारण लोकोपवाद बतलाया। तब सीता ने जो प्राज्ञा नही और न इस प्रकार जाना उपयुक्त ही है । सीता कहा उसका उल्लेख हम पहले ही कर चुके हैं। सेनापति ने अपना चुडामणि उतार कर हनुमान को दिया और सीता के विवेक और धैर्य से अत्यन्त प्रभावित होता है, अपनी उन जीवन घटनाओं का वृत्तान्त भी कहा जिसे सुन अपने कृत्य पर पश्चाताप करता है और कहता है-यह कर राम को विश्वास हो गया कि सीता जीवित है और सब कार्य मुझे पराधीनतावश करना पड़ा है। देवी, मेरा वह मेरे वियोग से पीड़ित है। यह अपराध क्षमा करो। कवि के वे वाक्य इस प्रकार है:
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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