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________________ अनेकान्त सेवावित्ती पुरिसो पहवयणा विसइ जलणंमि। सम्मान के साथ पालकी में लाया, और वहाँ उसके साथ जणणीए कीस जामो सो पुरिसो जो करेइ परसेवं ॥ भगिनी के योग्य व्यवहार किया। सीता ने वहाँ युगल सेच्छाए जेण को न लहइ सो किंचि करणिज्ज ॥ पुत्री को जन्म दिया जिनका नाम 'लव' और 'अंकुश' तो खमियम्बो सामिणि मह प्रवराहो इमो अहन्नस्स।। रक्खा गया। दोनो पुत्रो का वही लालन-पालन, शिक्षण एगागिणी प्ररणे जं परिचता मए समिह । मोर विवाह हुआ। उन्होने द्विग्विजय की। पश्चात् तनो बाहुल्ललोयणाए भणिय सीयाए, कहेहि केण पुण अयोध्या पाकर रामचन्द्र से युद्ध कर अपनी वीरता का कारण एसो प्रम्ह भीसणमेक चडो दडो कागविग्रो राह परिचय दिया और पादर के माथ अयोध्या में प्रवेश किया। वेण? नेण भणियं-देवि, सम्म न जाणामि । किन्तु मा वि मुओ जणप्पवाओ, जहा लकाहिवइणा अवग्यि जीए अग्नि परीक्षा और प्रायिका की दीक्षा : सीलवर रयणं सा सीया णियभवेण कह प्राणिया राहवेण । कुछ दिनो के पश्चात् गम की स्वीकृति पाकर विभीइयय सकल काउमन्ने भोएण पउमनाहेण । षण, हनुमान, मुग्रीव और भामडल प्रादि राजा गण सीता सुयण तुमं परिचत्ता णो अण्णो कोई प्रवराहो ।। को लेने के लिए पुडरीकणी नगरी गये, और सीता को ले मह वा न तुज्झ दोसो दोसा महचेव पुज्य पावस्स । पाये । किन्तु जब मीना गम के सम्मुख आई, तब राम ने उसे कहा-देवि, मै तुम्हारे शील को जानता हूँ, किन्तु जह नाह ग्रह तुमए परिचत्ता प्राणइ प्रभावेउ। किसी कर्मोदयवश जो जनापवाद रूप कलक हुमा उसे तह मा मुंचसु सामिण जिणवयण पिसुणवयहि ॥ धोने के लिए अग्नि में प्रवेश कर पात्म-शद्धि करो। मुक्कस्स मए पच्छा अवगणतस्स विगविलियस्स । तो राहवेण पगलंतप्रंसुसलिलेण जंपियं दइए। इह चेव भवे तिक्ख होही पिप्रयम महादुक्ख ॥ जं मणसि तुमं सच्चं सव्व पि नत्थि सन्देहो । चितामणिसारिच्छो जिणवरधम्मे मए विमक्क । जाणामि तुम सोल प्रणन्नसरिसं कुलीणयं लज्ज। नाणाविहदुक्खाणं भवे भवे भायणं होसि ॥ न कित्तिमं च पेम्म जह तुह तह कस्स भवर्णमि । -मीयारिउ का० पृ. १३५ तहबिहु जणावबानो केणइ कम्मेण उच्छलियो। मनापति के जाते ही मोता रोती और बिलखती है और अपनी निन्दा करती है, परन्तु वहां उमका कौन है, पाविहिसि जसं धवलं लहिसि पसिद्धो जणं मि सयलंमि। जो उसे उम दुःस्व में मान्त्वना दे, ढाढम बघावे। वह ता अलणपवेसेणं करेसु तं अत्तणो सुद्धि ॥ कभी जिनदेव का स्मरण करती है, कभी अपने माता-पिता हेमस्स ब जेण मलो अयसकलको समुत्तरह। और लक्ष्मण को याद करती है, कभी अपने भाई भामडल एसो सिग्घं चिय तह सुन्दरि जाणइ मणनिम्वुइ अम्हं ॥ को याद करती है। और कभी अत्यन्त करण विलाप सोयाचरिउ का० पृ० १६० करती है। मीता ने भी वस्तुस्थिति का दिग्दर्शन कराते हुए उमके इस करण विलाप को सुनकर बचजघ की सेना अपनी स्वीकृति दी। रुक गई । वज्रजघ ने मीता के शब्द मुने । उमने पाम अग्निकुण्ड तयार कराया गया और जब वह प्रज्विलित प्राकर जब सीता में उसका परिचय पूछा, तब सीता न हो उठा मीता ने पचनमस्कामत्र का स्मरण कर सभा म अपना परिचय दिया और बनवास का कारण बतलाया। तलाया। बैठे लोगो से कहा~यदि मैने इस जीवन में अपने पति वजय ने अपना परिचय देते हुए कहा-धर्मविधि रामचन्द्र को छोडकर अन्य पुरुष का स्वप्न में भी स्मरण से तुम मेरी बडी बहिन हो । मीता उसे अपना भाई मान- किया हो तो मेरा यह शरीर इस अग्नि में जल जाये और कर उसके साथ नगर में चली गई। ववजय सीता को न किया हो तो न जले, तत्पश्चात् सीता ने अग्नि में प्रवेश
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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