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________________ सीयाचरिउ : एक अध्ययन १४३ किया । लोग हाय-हाय करने लगे, किन्तु जब सीता अपने भणियं च-- शीलव्रत-माहात्म्य से न जली तब सबने उसके शील की समणो गावो विप्पा इत्थीमो बालबुद्धहोगत्ता । प्रशंसा की। कुण्ड से निकलने पर सीता ने ससार की एए नह हन्तव्वा कयावराहा वि, धीरेहि ॥ अनित्यता और प्रशरणता का अनुभव कर प्रात्मकल्याण --मयाचरिउ कापी पृ० ३८ करने का निश्चय किया । रामचन्द्र ने घर चलने का प्रा.ग्रह समणा य बम्भणा विय, गोपसु इत्थीय बालया बुढा । किया और यह भी कहा कि मैं तुझे सोलह हजार रानियों जह वि कुणन्ति दोस, तह वि य एए न हन्तव्वा ॥ की पटरानी बनाऊँगा, किन्तु सीता ने अपने केशो को लुचन -पउमचरिउ३५.५१ कर सर्वगुप्त मुनि के निकट प्रायिका की दीक्षा ले ली और विधिपूर्वक तपश्चरण द्वारा प्रात्मशुद्धि की। इस ग्रथ का रचयिता कौन है और ग्रंथ कहाँ रचा सीयाचरिउ मे सीता के पवित्र जीवन की जो झाकी गया, इसके जानने का कोई पुष्ट साधन अभी तक उपलब्ध दी गई है, उसका यह सक्षिप्त सार है, चरित ग्रंथ मुन्दर नहीं है । ग्रन्थ में रचनाकाल और गुरुपरपरा का भी कोई व प्रकाशन के योग्य है। उल्लेख नही है । किन्तु ग्रन्थ के अन्त में एक गाथा निम्न प्रकार से उपलब्ध है। ग्रथ का कथानक दिगबर परपरा को लिए ये है। उसमे ऐसी कोई बात नही है जिससे उसके विषय में संशय एय सीया_रय बुच्चरिय सेणियस्स नरवइणो। को अवकाश मिले । प्रस्तुत ग्रथ का तुलनात्मक अध्ययन जह गोयम तह महसूरिहि निवेदय किचि ॥ करने से स्पष्ट ज्ञात होता है, कि कर्ताने विमलसूरिके पउम- इसमें बतलाया है कि मीताचरित को गौतम ने जैसा गजा श्रेणिक से कहा वैसा ही महमूरि ने कुछ निवेदन अकित है। अथ के कितने ही पद्य ज्यो के त्यो साधारण किया। इस गाथा मे "मह" शब्द अपूर्ण जान पड़ता है पाठ-भेद के साथ पउमचरिउ मे उपलब्ध होते है। कुछ। और वह अन्य शब्द 'मेन" की अपेक्षा रखता है। पूरा नाम पद्य "अन्न च", "भणियं' तथा 'उक्त च' कह कर दिये गये महसेन मूरि होना चाहिए। इतिहास में महसेन और महाहै । वे उससे उडत किये गये जान पड़ते है। उदाहरणार्थ- सन नाम के विद्वाना का उल्लख मिलता है। बहत सभव है कि इस ग्रन्थ के रचयिता कोई महसेन या महासेन अन्नं च नामक विद्वान हो। महिला सहावचवला प्रदोहपेही सहाइ माइल्ला । वघेरा के निम्न मूर्तिलेख मे प्राचार्य महसेन का तं मे खमाहि पुत्तय जं पडिकलं कयं तुम्ह ॥१६६॥ उल्लेख स.प्ट है, यह लेख सफेद पाषाण की खड़गासन तो भणइ पढमणाहो अम्मो कि खत्तिया अलियवाई। हुँति महाकुलजाया तम्हा भरहो कुणाउ रज्जं॥ स० १२१५ वैशाख सुदी ७ श्री माथुरसंघे प्राचार्य मीयाचरिउ १६७ श्री महसेनेन दीक्षिता प्रायिका ब्रह्मदेवी श्री चन्द्रप्रभु महिला सहावचवला प्रदोहपेही सहावमाइल्ला। प्रणमिति ।" तं में खमाहि पुत्तय जं पडिकूलं कय तुम ॥३२-५१॥ कुछ विद्वान् “मह" का अर्थ मुझ बतलाते है पर वह सो भणह पउमणाहो मम्मो कि खसिया अलियवाई। यहा सगत नही जान पड़ता। होसि महाकुलजाया, तम्हा भरहो कुणउ रज्ज ।। इस ग्रथ की अनेक प्रतियाँ उपलब्ध है, संभव है उनमें -पउमचरिउ ३२-५२ से किसी पुरातन प्रति मे कर्ता का उल्लेख मिल जाय ।
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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