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________________ सोनागिरि सिद्धक्षेत्र और तत्सम्बन्धी साहित्य का विस्तारपूर्वक महत्त्व प्रतिपादित किया है। नंग और में मन्दिरों का निर्वाण हो चुका था। चन्द्रप्रभ स्वामी का अनगकुमार का पुण्यचरित भी इसी काव्य में पाया जाता समवशरण लाखों वर्षों तक यहाँ रहा, अतः प्रधान मन्दिर है, अन्य किसी ग्रन्थ मे नही । चन्द्रप्रभ भगवान् का रहना तर्कसंगत है। नग और अनंग'सोनागिरि क्षेत्र के तीन पूजा ग्रन्थ उपलब्ध है। कुमार का सम्बन्ध सोनागिरि के साथ अवश्य है, अतएव सस्कृत भाषा मे कवि पाशा द्वारा विरचित पाठ पत्रों की इसके सिद्धक्षेश होने में प्राशका नही है। यहाँ का मेरुयह पूजा है। पूजा में रचनाकाल का निर्देश नही है, पर मन्दिर, जो कि चक्की के प्राकार का होने के कारण भाषा शैली के आधार पर इसे सत्रहवी शती की रचना चक्की वाला मन्दिर कहलाता है, बहुत आकर्षक है। पर्वत मानी जा सकती है। के ऊपर का नारियलकुण्ड एव बजनीशिला यात्रियों के लिए विशेष रुचिकर है। पर्वत पर कुल ७७ मन्दिर और हिन्दी भाषा में इस क्षेत्र को तीन पूजा प्रतियो का नीचे अठारह मन्दिर है। अधिकाश मन्दिर विक्रम सवत् निर्देश मिलता है ! रचयिताओं के नाम इन पूजा प्रतिया की अठारहवी और १६वी शती के ही बने हुए है। इस मे अकित नही है और न रचनाकाल का ही स्पष्ट निश क्षेत्र की विशेषता इस बात मे है कि यहाँ धार्मिक वाताहै। राजस्थान के जन शास्त्र भण्डारी को ग्रन्थसूचो वरण के साथ प्रकृति का रमणीय रूप भी परिलक्षित होता चतुर्थभाग मे ग्रन्थसख्या ५५२१ और ५८६५ मे उक्त है। कलकल निनाद करते हुए झरने एव हरित मखमल पूजाओं की सूचना दी गई है। ५८६५ सख्या के गुटके मे की आभा प्रकट करती हुई दूर्वा भावुक हृदयकोल्हज ही पावागिरि और मोनागिरि की इन दोनो ही क्षेत्रो की अपनी ओर आकृष्ट कर लेती है। पूजा निबद्ध है। हम क्षेत्र के अधिकारियों से इतना नम्र निवेदन भी उपसंहार कर देना अपना कर्तव्य समझे है कि वे वहाँ के मूर्तिलेख एव ग्रन्थ प्रशस्तियों को प्रामाणिक रूप में प्रकाशित करा सोनागिरि क्षेत्र निर्वाणभूमि है, इसका प्रचार पन्द्रहवी देने को व्यवस्था करे, जिससे इस पुण्यभूमि का इतिहास शती से व्यापक रूप में है। यो यहाँ पर ११-१२वी शती लिखा जा सके। क्या कभी किसी का गर्व स्थिर रहा है ? रे चेतन | तू किस किस पर गर्व कर रहा है, ससार में कभी किसी का गर्व स्थिर नहीं रहा । जिसने किया उसी का पतन हुआ । फिर पामर । तेरा गर्व कैसे स्थिर रह सकता है। अहंकार क्षण मे नष्ट हो जाता है। जब सांसारिक पदार्थ ही सुस्थिर नही रहते, तव गर्व की स्थिरता कैसे रह सकती है ? सो विचार, अहंकार का परित्याग ही श्रेयस्कर है। इस सम्बन्ध मे कविवर भगवतीदास प्रोसवाल का निम्न पद्य विचारणीय है : धूमन के धौरहर देख कहा गवं कर, ये तो छिन माहि जाहि पौन परसत हो। संध्या के समान रंग देखत हो होय भंग, दीपक पतंग जैसें काल गरसत ही॥ सुपने में भूप जैसें इन्द्र धनुरूप जैसे, प्रोस बंद धूप जैसे दुरै दरसत हो। - ऐसोई भरम सब कर्मजाल वर्गणा को, तामें मढ मग्न होय मर तरसत ही ॥
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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