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सानसागर को स्फुट रचनाएँ
विश्वसेन संयम सहित विद्याभूषण गच्छपति । छः अंग तथा कुछ पुरानी पहेलियां शीर्षक लेखों में प्रका. श्रीभूषण नित बंदिये कहत ज्ञानसागर यति ॥ शित कराई हैं। गुरु जिन्हें नहीं मिल सके उनकी तुच्छता कवि ने
इन स्फुट रचनामों के समान छोटी-छोटी बहुत सी इन शब्दों में की हैनिगुराजेनर होय ते नर नंष समानह ।
रचनाएँ हिन्दी जैन साहित्य में पाई जाती हैं। एक-एक निगुरा जे नर होय तेह मिथ्यामति जाणह ॥
कवि की ऐसी रचनाओं के संग्रह के नाम विलासान्त रखे निगुरा जे नर होय धर्म भेद नहि जाणे ।
गये हैं। महाकवि बनारसीदास का बनारसी विलास निगरा जे नर होय सोहि पाखंड बखाणे ।
(जिसमे ६२ रचनायें हैं) शायद इस तरह का सबसे
पहला संग्रह है-विक्रम की सत्रहवीं सदी का उत्तरार्ष निगुरा जे संसार में ते नर भव-भव दुख लहे।
इनका कार्यकाल था। ज्ञानसागर इनके ज्येष्ठ समकालीन तिस कारण नित सेविये ब्रह्म ज्ञानसागर कहे ॥१३
थे, किन्तु इनकी रचनामों को अभी प्रकाशन का सौभाग्य इनके अतिरिक्त कुछ परंपरागत विषयो पर कवि ने
नही मिला है । इस प्रकार के दूसरे संग्रह है-द्यानतराय
नही मिला है। इस प्रकार के टमरे मंगट जो छंद लिखे है उनकी सख्या इस प्रकार है
का धर्मविलास (विक्रम की अठारह्वी सदी का उत्तरार्घ), षोडशकारण भावना १७, दशलक्षण धर्म १२, जिन- भगवतीदास का ब्रह्मविलास (विक्रम की अठारहवी सदी पंचकल्याणक ६, पचपरमेष्ठि ६, सप्तव्यसन फल ८, का मध्य), वृन्दावन का वृन्दावन विलास (विक्रम की पचेंद्रिय मोहफल ६, जिनपूजा (अष्टद्रव्य) ६, जिनपूजा- उन्नीसवी सदी का उत्तरार्ध), बुधजन का बुधजनविलास फल (मष्ट द्रव्यपूजा फल की पाठ कथाओं का सक्षिप्त (विक्रम की उन्नीसवी सदी का उत्तरार्ध), (दौलतराम उल्लेख) ६, पथिक कवित्त (ससार स्वरूप के मधुबिन्दु दौलतविलास तथा देवीदास का परमानन्दविलास इस का वर्णन) ५, नमस्कार मंत्र माहात्म्य ११, सम्यग्दर्शन प्रकार के अन्य अप्रकाशित ग्रन्थ है ।) जैन ग्रन्थ रत्नाकर के अग तथा माहात्म्य १६, सम्यग्ज्ञान स्वरूप तथा माहा- कार्यालय, बम्बई द्वारा प० पन्नालाल जी बाकलीवाल तथा त्म्य १७, सम्यक् चारित्र के तेरह अग और माहात्म्य २६, पं० नाथूरामजी प्रेमी ने इन विलास संज्ञक ग्रन्थों को इस जिनदर्शन ६, कर्मफल ६, धर्ममाहात्म्य १२, पापफल १२, शताब्दी के पहले चरण में प्रकाशित किया था हिन्दी जैन द्वादशानुप्रेक्षा १३ । इनके अतिरिक्त सघाप्टक और हरि- साहित्य के प्रकाशन की वह परपरा यदि पुनर्जीवित की पाली कवित्त ये रचनाये हमने अनेकान्त मे जैन संघ के जा सके तो बहुत अच्छा होगा।
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