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दर्शनोपयोग व ज्ञानोपयोग : एक तुलनात्मक अध्ययन
बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री
"उपयोगो लक्षणम्' इस मूत्र के अनुसार जीव का उपयोग का नाम दर्शन है। जो उपयोग कर्मता और लक्षण उपयोग माना गया है । इस उपयोग के लक्षण का कर्तृता (उभय) रूप प्राकार से युक्त होता है उसे साकार निर्देश करते हए सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक मे कहा तथा जो इस प्रकार से रहित होता है उसे अनाकार कहा गया है कि बाह्य और अन्तरग निमित्त से चेतनता का जाता है। यह कथन अात्मविषयक उपयोग को दर्शन अनुसरण करने वाला जो परिणाम उत्पन्न होता है उसका और बहिरविषयक उपयोग को ज्ञान मानने पर घटित नाम उपयोग है।
होता है। तदनुसार 'मै घट को जानता हूँ" इम ज्ञान में हरिभद्र मूरि ने उपलब्धि या जान-दर्शन की समाधि- जिस प्रकार कर्ता और कर्म दोनो प्रतिभासित होते है उस सम्यक् अर्थात् अपने विषय की मीमा का उल्लघन न करके प्रकार घटज्ञानोत्पादक प्रयत्न से सम्बद्ध प्रात्मा के वेदनरूप धारणको उपयोग कहा है। प्राचार्य मलयगिरि के अभि. दर्शन मे वे दोनो प्रतिभासित नही होने-केवल कर्ता व प्रात्मा मनानमार वस्तु के जानने के प्रति जो जीव का व्यापार का ही प्रतिभास उसमें होता है, न कि कम का। होता है उमे, अथवा जिसके पाश्रय से वस्तु का परिच्छेदन यहा यह शका हो सकती है कि प्रात्मविषयक उपहोता है उसे उपयोग कहा जाता है'।
योग को दर्शन मानने पर उसका
जं सामण्णग्गहणं भावाणं णेव कट्टमायारं । उपयोग के दो भेद व उनका स्वरूप
प्रविसेसिदूण प्रत्थे दसणमिदि भण्णदे समए । वह उपयोग ज्ञान और दर्शन के भेद से दो प्रकार का
इस परमागम प्ररूपित मामान्यग्रहण स्वरूप दर्शन के है। उनमे साकार उपयोग का नाम ज्ञान और अनाकार
साथ क्यो न विरोध होगा? पर इस शका के लिए
४ स. सि. २-६; त. वा. २,९,१, धवला पु. १३, उभयनिमित्तवशादुत्पद्यमानश्चतन्यानुविधायी परि
पृ. २०७; स उपयोगो द्विविध: साकारोऽनाकारच, णाम उपयोगः । स. सि. २.८; बाह्याभ्यन्तरहेतु
ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्चेत्यर्थः । त. भा. २.६. द्वयसन्निधाने यथासम्भवमुपलब्धुश्चतन्यानुविधायी
को प्रणागारुवजोगो णाम मागारुवजोगादो अण्णो। परिणाम उपयोगः । त. वा. २,८,१.
कम्म-कत्तारभावो पागागे, तेण प्रागारेण सह वट्टउपयोजनमुपयोगः उपलम्भः, ज्ञान-दर्शनसमाधिः । त.
माणो उवजोगो मागागे ति। धवला पु १३,पृ. २०७. भा हरि. वृत्ति २-८; उपयोग उपलम्भः, ज्ञान-दर्शन
म्वस्माद् भिन्नवस्तुपरिच्छेदक ज्ञानम्, स्वतोऽभिन्नसमाधिः-ज्ञान-दर्शनयोः सम्यक् स्वविषयसीमानुल्ल
वस्तुपरिच्छेदक दर्शनम् । धवला पु. १, पृ ३८३-८४, घनेन वारण समाधिरुच्यते। त.भा.सिद्ध. वृत्ति २-८.
अप्पविसनो उवजोगो दसण । ण णाणमेद, तस्स उपयोजनमुपयोग., भावे घञ्, यद्वा उपयुज्यते वस्तु- बज्झट्टविसयत्तादो । धवला पु ६, पृ. ६, किं परिच्छेद प्रति व्यापार्यते जीवोऽनेनेत्युपयोगः, 'पुनाम्नि दर्शनम् ? जानोत्पादकप्रयलानुविद्धस्वसवेदो दर्शनम्, घ' इति करणे घ-प्रत्यय , बोवरूपो जीवस्य तत्त्वभूतो आत्मविषयोपयोग इत्यर्थ । वही पृ. ३२-३३; व्यापारः प्रजप्तः प्रतिपादितः। प्रज्ञापना म. वृत्ति बाह्यार्थपरिच्छेदिका शक्तिर्ज्ञानम् । धवला पु. १३, २९-३१२.
पृ. २०६.