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भनेकान्त
कोई स्थान नही है। कारण कि उक्त गाथासूत्र में प्रयुक्त जो जानता है उसका नाम ज्ञान है और वह विशेष'सामान्य' शब्द आत्मा का ही वाचक है। जीव चूकि बिना ग्रहणस्वरूप या साकार है। जो देखता है उसका नाम किसी प्रकार के नियम (विशेषता) के ही तीनों काल- दर्शन है और वह सामान्यग्रहणस्वरूप या अनाकार है। विषयक अनन्त अर्थ पर्याय और व्यंजन पर्यायों से युक्त हरिभद्र सूरि के मतानुसार घट-पटादि विशेषों का बाह्य व अन्तरग पदार्थों को विषय करता है, अतएव उसके जो निविशेष-विशेषरूपता का परित्याग कर सामान्य 'सामान्य' मानने में कुछ बाधा उपस्थित नही होती। आकार से-ग्रहण होता है, इसका नाम दर्शन है।
आत्मविषयक उपयोग के दर्शन मानने में दूसरी शंका तथा उन्ही का जो सविशेष-सामान्य आकार को छोडकर यह भी हो सकती है कि दर्शन के विषयभूत आत्मा मे कुछ विशेष रूप से-ग्रहण होता है वह ज्ञान कहलाता है। भेद न होने से चक्षुदर्शन आदि चारों ही दर्शनों में कुछ
साकारता व अनाकारता का स्वरूप भेद नहीं रहेगा ? इसका उत्तर यह है कि जो स्वरूप- कर्मता व कर्तृता का नाम प्राकार है, इस प्रकार के सवेदन जिस ज्ञान का उत्पादक होता है उसका वह दर्शन साथ वर्तमान उपयोग को माकार और उससे भिन्न को माना जाता है। इससे उस दर्शन की चतुर्विधता में कोई अनाकार कहा जाता है । बाधा नही पहुँचती । जैसे-चक्षरिन्द्रियावरण के क्षयोप
आकार, विकल्प और अर्थग्रहणपरिणाम, ये समानार्थक शम से उत्पन्न होने वाले ज्ञान के विषयभूत जितने भी है। इस प्रकार के प्रकार से सहित साकार और उसस पदार्थ सम्भव है उतने ही तत्-तत् नाम वाले आत्मस्थित
४ जाणइ त्ति नाणं, त च ज विसेसग्गहण तं णाण, साक्षयोपशम भी होंगे। अतः उनके प्राथय से प्रात्मा भी
गारमित्यर्थः । पासति ति दसण, तं च ज सामण्णग्गउतने ही प्रकारका होगा। इस प्रकार भिन्न-भिन्न शक्ति
हणं तं दसणं, अणागारमित्यर्थः । नन्दी. चूणि २७, से युक्त प्रात्मा के वेदन के दर्शन मानने में दर्शन की
पृ २०. विविधता अक्षुण्ण बनी रहती है।
५ ज एत्थ णिव्विसेस गहो विसेसाण दंसण होति । जो यथार्थ वस्तुस्वरूप का प्रकाशक अथवा तत्त्वार्थ का उपलम्भक है उसका नाम ज्ञान तथा प्रकाशवृत्तिका नाम
सविसेस पुण णाण ता सयलत्थे तो दो वि ।। दर्शन है, इस प्रकार भी उक्त ज्ञान-दर्शन का लक्षण अन्यत्र
जं सामण्णपहाण गहण इतरोवसज्जण चेव ।
अत्थस्स दसण त विवरीय होइ णाण तु ॥ उपलब्ध होता है।
धर्मसग्रहणी १३६४ व १३६८. ....... अप्पत्थम्मि पउत्त-सामण्ण-सद्दग्गहणादो। ण
दर्शनावरणकर्मक्षयोपशमादिज सामान्यमात्रग्रहण च जीवस्स सामण्णत्तमसिद्ध, णियमेण विणा विसयी
दर्शनमिति । उक्तं च-जं सामण्णग्गहण भावाण कयत्तिकालगोयराणतत्थ- वेजणपज्जग्रोवचियबज्झतर
कट्ट नेय प्रागार । अविसेसिऊण अत्थ दसणमिति गाण तत्थ सामण्णत्ताविरोहादो । धवला पु ७,
वुच्चए समए । अनुयो. हरि. वृत्ति पृ. १०३. पृ १००, धवला पु.१, पृ. ३८०; पु. १३, पृ ३५४,
विशेषग्राहि ज्ञानम्, सामान्यग्राहि दर्शनम् । ३५५ और जयघवला १, पृ. ३६० भी द्रष्टव्य है ।
पंचास्तिकाय अमृत. वृत्ति ४०; सविकल्प ज्ञानम्, २ अात्मविषयोपयोगस्य दर्शनत्वेऽङ्गीक्रियमाणे आत्मनो
विविकल्प दर्शनम् । (जयसेन वृत्ति) विशेषाभावाच्चतुर्णामपि दर्शनानामविशेष स्यादिति
को अणागारुवजोगो णाम ? सागारुवजोगादो अण्णो। चेन्नैष दोपः, यद्यस्य ज्ञानस्योत्पादक स्वरूपसवेदन तम्य तदर्शनव्यपदेशान्न दर्शनस्य चातुर्विध्यनियमः ।
कम्म-कत्तारभावो पागारो, तेण प्रागारेण सह वट्टयावन्तश्चक्षुरिन्द्रियक्षयोपशम......."। धवला पु १,
माणो उवजोगो सागारो ति। धवला पु. १३, पृ. पृ. ३८१-८२.
२०७; आयारो कम्मकारय सयलत्थसत्पादो पुध भूतार्थप्रकाशकं ज्ञान तत्त्वार्थोपलम्भक वा ।....... काऊण बुद्धिगोयरमुवणीयं, तेण पायारेणं सह वट्टमाण प्रकाशवृत्तिदर्शनम् । धवला पु. ७, पृ. ७.
सायारं। तविवरीयमणायारं । जयधवला १, पृ. ३३८.