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वर्शनोपयोग व ज्ञानोपयोग : एक तुलनात्मक अध्ययन
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विपरीत अनाकार कहा जाता है।
नाम प्रचक्षुदर्शन है। परमाणु को आदि लेकर अन्तिम अन्यत्र प्रतिनियत अर्थग्रहण परिणाम को आकार कह। स्कन्ध पर्यन्त मूर्तिक द्रव्यो को जो प्रत्यक्ष (साक्षात्) देखता गया है । जो उपयोग इस प्रकार के साथ रहता है वह है वह अवघिदर्शन कहलाता है। जो लोक व अलोक को साकार कहलाता है। अभिप्राय यह है कि सचेतन अथवा तिमिर से रहित करता है- उन्हे प्रकाशित करता हैअचेतन वस्तु के विषय में उपयोग को लगाने वाला यात्मा उसे केवलदर्शन कहते है। जब पर्याय (विशेष) सहित ही वस्तु को ग्रहण करता है धवला में इनके लक्षण इस प्रकार देखे जाते हैतब वह उपयोग साकार कहलाता है। इस प्रकार से चाक्षुष ज्ञान के उत्पादक प्रयत्न से सम्बद्ध आत्मा के संवेदन रहित उपयोग को अनाकार कहा जाता है। अभिप्राय यह मे 'मै रूप के दर्शन में समर्थ हैं' इस प्रकार की सम्भावना है कि जिस प्रकार हाथी, घोड़ा एव पादचारी प्रादि भेद का जो हेतु है उसे चक्षुदर्शन कहते है। शेष इन्द्रियो और से रहित सामान्य सेना को स्कन्धावार कहा जाता है मन के दर्शन को अचक्षुदर्शन कहा जाता है। अवधिज्ञान उसी प्रकार जो वस्तु को सामान्य रूप से ग्रहण करता है के दर्शन का नाम अबधिदर्शन और केवल-प्रतिपक्ष से उसे अनाकार उपयोग समझना चाहिये।
रहित-दर्शन का नाम केवलदर्शन है। दर्शनोपयोग के भेद
अनुयोगद्वार सूत्र में दर्शनचतुष्टय के स्वरूप की
मूचना इस प्रकार की गई है-चक्षु इन्द्रिय के द्वारा चक्षउपर्युक्त दोनो उपयोगो मे से दर्शनोपयोग चार प्रकार
दर्शनी जीव के जो घट, पट, चटाई और रथ आदि द्रव्य का है-चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवल. दर्शन।
३ धवला पु७ ( पृ १०० ) मे 'सेसिदियप्पयासो चक्षो को जो प्रकाशित होता है अथवा दिखता है, णादवो सो अचक्खू त्ति' के स्थान में 'दिट्ठस्स य ज उसका नाम चक्षुदर्शन और शेष इन्द्रियो के प्रकाश का सरण णायव्व त अचक्ख ती' पाठ है। तदनुमार १ प्राकारो विकल्पोऽर्थग्रहणपरिणाम इत्यनर्थान्तरम् ।
प्रचक्षदर्शन का लक्षण 'देखे हुए पदार्थ का स्मरण'
ठहरता है। सहाकारण साकार, तद्विपरीतोऽनाकारः। त भा४ पचसग्रह १,१३६-४१, गो. जी. ४८३-८५. प्रकृत हरि. वृत्ति २.६; आकारो विकल्पः, सह प्राकारण गाथाय धबला पु. १, पृ. ३८२ पर उद्धृत पायी साकारः, अनाकारस्तद्विपरीत., निर्विकल्प इत्यर्थः । जाती है। पूर्व की दो गाथायें धवला पु ७, पृ. १०० त. भा. सिद्ध. वृत्ति २-६; साकार सविकल्पकम्, पर भी उद्धृत है। वहाँ उनका विशेष अर्थ भी ज्ञानमित्यर्थः । अनाकार निर्विकल्पकम्, दर्शनमित्यर्थ । द्रप्टव्य है जो वीरसेन स्वामी के द्वारा किया गया है। त. सुखबोधा वृत्ति २-६.
५ तत्र चक्षुर्ज्ञानोत्पादकप्रयत्नानुविद्धस्वस वेदने रूपदर्शनप्राकार. प्रतिनियतोऽर्थग्रहणपरिणामः, 'पागारी अ क्षमोऽहमिति सम्भावनाहेतुश्चक्षुर्दर्शनम् । .......... विसे सो' इति वचनात् । सह प्राकारेण वर्तते इति शेषेन्द्रिय-मनसा दर्शनमचक्षुर्दर्शनम् ।............ माकार, स चामावपयोगश्च साकारोपयोग । कि- अवधेर्दर्शनम् अवधिदर्शनम् । ......... केवलमसमुक्तं भवति? सचेतने अचेतने वा वस्तुनि उपयुजान पत्नम्, केवल च तद् दर्शन च केवलदर्शनम् । धवला प्रात्मा यदा सपर्यायमेव वस्तु परिछिनत्ति तदा स
पु ६, पृ. ३३, चवखुविण्णाणुप्पायणकारण सगसवेउपयोग साकार उच्यते । स कालत: छपस्थानामन्त
यण चक्खुदमण णाम ।........सोद-घाण-जिन्भामहर्तकालः, केवलिनामेकसामयिकः । तथा न विद्यते फास-मणेहितो समुप्पज्जमाणणाणकारणसगसवेयणमयथोक्तरूप आकारो यत्र सोऽनाकारः। स चासावुप- चक्खुदसण णाम ।........ परमाणुअादिमहक्खधंतयोगश्च अनाकारोपयोगः, यस्तु वस्तुनः सामान्यरूप- पोग्गलदवविसयमोहिणाणकारणसगसवेयण प्रोहिदसण तया परिच्छेदः सो अनाकारोपयोगः स्कन्धावारोप
......... केवलणाणुप्पत्तिकारणसगसवेयण केवलदसणं योगवदित्यर्थः । प्रज्ञापना मलय. वृत्ति २६.३१२. णाम । धवला पु १३, पृ. ३५५.