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________________ पशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन मानो निर्माण कला के प्रतीक थे । शिखरो की पटनि पर मरकतपरागनिर्मित रगावलि, सचरणशील हेमकन्यकाये, सिह निर्माण किया जाता था। मणिमुकुर युक्त ध्वज तुहिनतरु के वलीक, कूर्चस्थान इत्यादि का विश्लेषण किया स्तंभ और स्तंभिकायें, सचित्र ध्वज दण्ड, रत्नजटित गया है । काचन कलश, चद्रकान्त के बने प्रणाल, उज्ज्वल मामला दीपिका और प्रमदवन के विषय मे भी सोमदेव ने सार कलश और उन पर खेलती हुई कलहस श्रेणी विटको पर्याप्त जानकारी दी है। दीपिका राजभवन मे एक पोर पर बैठे शुक शावक, इन सबके कारण शिखर और अधिक से दूसरी ओर दौडती हुई वह लम्बी नहर थी, जिसे बीचपाकर्षण का केन्द्र बन रहे थे। सोमदेव की इस सामग्री बीच मे रोककर, पुष्करणी, गधोदक कूप, क्रीडा वापी को वास्तुसार, प्रासादमडन तथा अपराजित पृच्छा की प्रादि मनोरजन के माधन बना लिए जाते थे और अन्त तुलना पूर्वक स्पष्ट किया गया है। में जाकर दीपिका प्रमदवन को सीचती थी। दीपिका त्रिभुवनतिलक प्रासाद के वर्णन मे सोमदेव ने प्राचीन तथा प्रमदवन दोनो के प्राचीन वास्तु-शिल्प की यह विशेवास्तु शिल्प की अनेक महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ दी है। इससे षता बहुत समय तक जारी रही और भारत के बाहर भी जात होता है कि प्राचीन काल मे सूर्य और अग्नि मन्दिर इराके उल्लेख मिलते है। इस परिच्छेद मे इस सबके की तरह इन्द्र, कुबेर, यम, वरुण, चन्द्र प्रादि के भी विषय में विस्तृत जानकारी दी गयी है। मन्दिरो का निर्माण किया जाता था। परिच्छेद चार मे यन्त्रशिल्प विषयक सामग्री का प्रास्थान मडप को सोमदेव ने लक्ष्मीविलाम नाम विवेचन है। यन्त्रधारागृह के प्रसग मे सोमदेव ने अनेक दिया है। गुजरात के बडौदा आदि स्थानों मे विलास प्रकार के यान्त्रिक उपादानो का उल्लेख किया है। कुछ नामान्तक भवनो की परपरा अब तक सुरक्षित है । मुगल सामग्री अन्य प्रसगो में भी पायी है। वास्तु मे जिसे दरबारे आम कहा जाता था, उसी के लिए यन्त्रधारागृह के निर्माण को परपरा का क्रमशः प्राचीन नाम प्रास्थान मडप था सोमदेव ने इसका विस्तृत विकास हुआ है। ममगगण सूत्रधार में पांच प्रकार के वर्णन किया है। __ वारिगृहो के उल्लेख है। सोमदेव ने यन्त्रधारागृह का प्रास्थानमडप के ही निकट गज और अश्वशालाएं विस्तार से बर्णन किया है। यहा यन्त्रजलधर या मायाबनाई जाती थी। राजभवन के निकट इन शालाओं के मेघ की रचना की गई थी। विभिन्न प्रकार के पशुबनाने की परंपरा भी प्राचीन थी। राजा को प्रात. गज- पक्षियो के मह से निकलता हुअा जल दिखाया गया था। दर्शन शुभ बताया गया है, यह इसका एक बड़ा कारण यन्त्रपुत्तलिकाएं, यन्त्रवृक्ष आदि की रचना की गयी थी। प्रतीत होता है । फतेहपुर सीकरी के प्राचीन महलो मे इस यन्त्रधारागृह का प्रमुख आकर्षण यन्त्रस्त्री थी, जिसके हाथ प्रकार की वास्तु का दर्शन अब भी देखा जाता है। छूने पर नाखाग्रो से, स्तन छूने पर चूचुको से, कपोल छून सरस्वती विलास कमलाकर सम्राट का निजी वास- पर नेत्रो से, सिर छूने पर नाभि से चन्दन चचित जल की भवन था। क्रीडा पर्वतक की तलहटी में बनाये गये दिग्व- धाराएँ बहने लगती थी। सोमदेव ने पखा झलने वाली लयविलोकन प्रासाद मे सम्राट अवकाश के क्षणों को ताम्बूलवाहिनी यान्त्रिकपुत्तलिकामो का भी उल्लेख किया प्रानन्दपूर्वक बिताते थे। कारिविनोदविलोकनदोहद आज- है अन्तःपुर के प्रसंग मे यन्त्रपर्यक का उल्लेख है। इस कल के स्पोर्टस्-स्टेडियम के सदृश था। मसिजविलासहस- परिच्छेद मे इस सम्पूर्ण सामग्री का विवेचन किया गया तिवासतामरस नामक भवन पटरानी का अन्तःपुर था। है। यह सप्ततलप्रासाद का सबसे ऊपरी भाग था। इसके वर्णन चतुर्थ अध्याय मे यस्तिलककालीन भूगोल पर प्रकाश में सोमदेव ने बहुमूल्य और प्रचुर सामग्री की जानकारी हाला गया है। यशस्तिलक मे सैतालीस जनपद, चालीस दी हैं। रजतवातायन, अमलक देहली, जातरूपभित्तियाँ, नगर और ग्राम, पाँच वृहत्तर भारत के देश, पंद्रह बन
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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