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अनेकान्त
अध्ययन के आधार पर इन वाद्य यन्त्रों का इस परिच्छेद यक्ष मिथुन के चित्र बनाये गये थे। प्रतीक चित्रों मे में पूरा परिचय दिया गया है।
तीर्थंकरो की माता के सोलह स्वप्नों के चित्र थे। श्वेनृत्यकला विषयक सामग्री भी यशस्तिलक मे पर्याप्त ताम्बर साहित्य में इनकी संख्या चौदह बताई गई है। है। सोमदेव ने लिखा है कि सम्राट् यशोधर नाट्यशाला ऐरावत हाथी, वृषभ, सिंह, लक्ष्मी, लटकती हुई पुष्प में जाकर कुशल अभिनेताओं के साथ अभिनय देखते थे। मालाये, चन्द्र-सूर्य, मत्स्य युगल, पूर्ण कुभ, पग्रसरोवर, नाट्य प्रारंभ होने के पूर्व रंगपूजा की जाती थी। सोम- सिंहासन, समुद्र, फणयुक्त सर्प, प्रज्वलित अग्नि, रत्नो का देव ने इसका विस्तार से वर्णन किया है।
ढेर और देव विमान ये सोलह स्वप्न तीर्थकर की माता
बालक के गर्भ में जाने के पहले देखती है। प्राचीन पाण्डुयशस्तिलक मे नृत्य के लिए नृत्य, नृत्त, नाट्य लास्य,
लिपियो में भी इनका चित्राकन मिलता है। ताण्डव तथा विधि शब्द पाये है। नृत्य, नृत्त और नाट्य देखने में समानार्थक शब्द लगते है, किन्तु वास्तव में इनमें रगावली या धूलिचित्रो का सामदेव ने छह बार पर्याप्त अन्तर था । दशरूपक मे धनजय ने इनके पारस्प- उल्लेख किया है। चित्रकला मे रगावलि का क्षणिक चित्र रिक भेदो को स्पष्ट किया है। नाट्य दृश्य होता है, इस कहते है। इसके धूलिचित्र और रचित्र दो भेद है। लिए इसे 'रूप' भी कहते है और रूपक अलकार की तरह आजकल इसे रगीली या अल्पना कहा जाता है। प्रत्येक प्रारोप होने के कारण रूपक भी। काव्यो में वणित मागलिक अवसर पर रगीली बनान का प्रचलन भारतवष धीरोद्धत आदि प्रकृति के नायकों, नायिकामो तथा पात्रो में अभी भी है। का आगिक, वाचिक आहार्य तथा सात्विक अभिनयो द्वारा प्रजापति प्रोक्त चित्रकर्म का एक विशेष प्रसग में अवस्थानुकरण नाट्य कहलाता है । यह रसाश्रित हाता उल्लेख है। पद्य का तात्पर्य है कि जो कलाकार प्रभा है । नृत्य भावाश्रित और कल दृश्य होता है। ताल अरि मण्डल यक्त तथा नव भक्तियो सहित तीर्थकर का चित्र लय के आश्रित किए जाने वाले नर्तन को नृत्त कहते है।
हत ह। बना सकता है वह सम्पूर्ण पृथ्वी का भी चित्र बना इसमे अभिनय का सर्वथा अभाव रहता है। लास्य और सकता है। ताण्डव नृत्त के ही भेद है। इस परिच्छेद में इस सम्पूर्ण
चित्रकला के अन्य उल्लेखो मे ध्वजामो पर बने चित्र, सामग्री का विशद विवेचन किया गया है ।
दीवालो पर बने सिंह तथा गवाक्षो से झाकती हुई कामिपरिच्छेद दो में यशस्तिलक की चित्रकला विषयक नियो के उल्लेख है। इस परिच्छद में इस सम्पूण सामग्री सामग्री का विवेचन है। सोमदेव ने विभिन्न प्रकार के का विवेचन किया गया है।। भित्ति चित्रो तथा धूलि चित्रो का उल्लेख किया है। प्रजा
परिच्छेद तीन में यशस्तिलक की वास्तुशिल्प विषयक पति प्रोक्त चित्र कर्म का सदर्भ विशेष महत्त्व का है। मामयी का विवेचन किया गया है। सोमदेव ने विभिन्न उसका एक पद्य भी उद्धृत किया गया है।
प्रकार के शिखर युक्त चैत्यालय, गमनचुबी महाभागभवन, भित्तिचित्र बनाने की एक विशेष प्रक्रिया थी। भित्ति त्रिभुवन-त्रिलकनामक राजप्रासाद, लक्ष्मीविलासतामरस चित्र बनाने के लिए भीत का पलस्तर या उपलेप कैसा नामक स्थानमडप, श्री सरस्वती विलास कमलाकर होना चाहिए, उसे कैसे बनाना चाहिए, उस पर लिखाई नामक राजमदिर, दिग्विलयविलोकनविलास नामक क्रीड़ा करने के लिए जमीन कैसे तैयार करना चाहिए-इत्यादि प्रासाद, करिविनोदविलोकनदोहद नामक वासभवन, गृहका मानसोल्लास मे विस्तृत वर्णन है। सोमदेव ने दो दीपिका, प्रमदभवन तथा यन्त्रधारागृह का विस्तृत वर्णन प्रकार के भित्ति चित्रो का उल्लेख किया है-व्यक्ति किया है। चित्र और प्रतीक चित्र। एक जिनालय मे बाहुबलि, चैत्यालयों के शिखरो ने सोमदेव का विशेष ध्यान प्रद्युम्न, सुपार्श्व, अशोक राजा और रोहिणी रानी तथा आकृष्ट किया । सोमदेव ने लिखा है कि शिखर क्या थे