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प्रोम् महम्
अनेकान्त
परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविषानम् । सकलनय विलसितानां विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥
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वर्ष २१ । किरण ५-६ ।
वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४६५, वि० स० २०२५
(दिसम्बर १९६८ फर्वर १९६६
वीरजिन-स्तवन
मोहादि-जन्य-दोषान् यः सर्वान् जित्वा जिनेश्वरः। वीतरागश्व सर्वज्ञो जातः शास्ता नमामि तम् ॥ शुद्धि-शक्त्योः परां काष्ठां योऽवाप्य शान्तिमुत्तमाम् । देशयामास सद्धर्म तं वीरं प्रणमाम्यहम् ॥
(मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय नाम के चार घातिया कर्मो के निमित्त से उत्पन्न होने वाले जो दोष है-राग-द्वेष, मोह, काम-क्रोध-मान-माया-लोभ, हास्य-रति-अरति-शोक-भय ग्लानि, अज्ञान, प्रदर्शन
और प्रशक्ति आदि के रूप मे आत्मा के विकार भाव अथवा वैभाविक परिणमन है-उन सबको जीतकर जो जिनेश्वर, वीतराग, सर्वज्ञ और शास्ता हुए है। उन वीरजिन को मैं नमस्कार करता हूँ।)
(जो मोहनीय कर्म का क्षय कर शुद्धि को, ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों का प्रभाव कर ज्ञानशक्ति और दर्शनशक्ति तथा वीर्य शक्ति की पराकाष्ठा को प्राप्त हुए है । साथही उत्तम-अनुपमसुखरूप परिणत हुए हैं और इन सब गुणों से सम्पन्न होकर जिन्होने समीचीन धर्म की देशना की है उन श्री वीर प्रभु को मैं प्रणाम करता हूँ॥)
-जुगलकिशोर मुख्तार