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२३.
अनेकान्त
यदि मात्माको ज्ञानसे-क्षायिक अनन्त केवलज्ञानसे- जहा-तहा आत्मा-संसारी आत्मा को अपने प्राप्त बड़ा माना जाय तो उसका वह बढ़ा हुआ अश ज्ञानविहीन शरीरके प्रमाण ही बतलाया गया है, तथा मुक्त जीवोंके होनेसे अचेतन (जड) ठहरेगा। तब वैसी अवस्थामे वह प्रात्मप्रदेश अन्तिम शरीरके प्रमाणसे कुछ हीन ही रहते है, ज्ञानस्वरूप कैसे माना जा सकता है ? इसके विपरीत यदि यह भी कहा गया है। तब उस आत्माको सर्वगत कहना उसे ज्ञानसे छोटा माना जाता है तो उस पात्मासे ज्ञानका कैसे संगत होगा? इसके समाधानस्वरूप व्याख्यामे यह जितना अंश बढ़ा हुआ होगा वह स्वाश्रयभूत आत्माके स्पष्ट किया गया है कि मुक्तात्मायें सभी वस्तुतः स्वात्मबिना निराश्रय ठहरता है । सो यह सम्भव नही है, क्योकि स्थित'-अपने अन्तिम शरीरके प्राकारमे विद्यमान प्रात्मगुण कभी गुणी (द्रव्य) के बिना नही रहता है। इससे प्रदेशोंमे ही स्थित है, उनके बाहिर उनका अवस्थान सिद्ध है कि प्रात्मा ज्ञानके प्रमाण है--न उससे बड़ा है नहीं है, फिर भी प्रात्माको जो सर्वगत कहा गया है वह और न छोटा भी।
औपचारिक है। मागे वह ज्ञान ज्ञेय-अपने विषयभत लोक-प्रलोक इस उपचारका कारण यह है कि ज्ञान उस दर्पणके -प्रमाण है, इसका स्पष्टीकरण करते हुए व्याख्यामे लोक समान है जिसमे पदार्थ प्रतिबिम्बित होते है । अर्थात् और अलोकके स्वरूपको दिखलाकर कहा गया है कि ज्ञेय दर्पण जैसे न तो पदार्थोके पास जाता है और न उनमे तत्त्व लोक और अलोक है, कारण कि उनसे भिन्न अन्य
प्रविष्ट ही होता है, तथा वे पदार्थ भी न तो दर्पणके पास किसी ज्ञेय पदार्थका अस्तित्व ही सम्भव नहीं है। इसका
आते है और न उसमे प्रविष्ट ही होते है। फिर भी वे भी कारण यह कि जो ज्ञानका विषय है वही तो ज्ञेय कहा
पदार्थ उसमे प्रतिबिम्बित होकर तद्गतसे दिखते अवश्य जाता है। इस प्रकार ज्ञानकी सीमाके बाहिर लोक और है, इसी प्रकार सर्वज्ञका ज्ञान भी न तो पदार्थोके पास अलोक को छोड़कर अन्य किसी ज्ञेयका जब अस्तित्व सम्भव
जाता है और न उनमे प्रविष्ट ही होता है, तथा पदार्थ मही है तब यह स्वय सिद्ध है कि ज्ञान अपने विषयभूत
भी न ज्ञानके पास आते है और न उसमे प्रविष्ट भी होते लोक-अलोकके ही प्रमाण है।
है; फिर भी वे उस ज्ञानके विपय अवश्य होते है-उसके इस प्रकार जब यह सिद्ध हो गया कि आत्मा ज्ञान द्वारा निश्चित हा जान जात है। यह वस्तुस्वभाव हा ह प्रमाण और ज्ञान ज्ञेय प्रमाण है तब चूकि अलोक सर्व
-जिस प्रकार दर्पण और पदार्थोको इच्छाके बिना ही व्यापक है, अतएव उसको विषय करनेवाला ज्ञान भी सर्व
उसमे उनका प्रतिबिम्ब पड़ता है उसी प्रकार ज्ञान और
उसम उनका प्राताबम्ब गत सिद्ध होता है। इसका यह तात्पर्य निकला कि प्रात्मा
पदार्थोकी इच्छाके बिना ही उस केवलज्ञानके द्वारा अलोकके अपमे ज्ञान गुणके साथ सर्वव्यापक होकर लोकके साथ
साथ लोकमे स्थित सभी पदार्थ जाने जाते है। इस
प्रकार विपय की व्यापकता से विपयी जान को भी सर्वप्रलोकको भी जानता है। यह स्थिति सर्वजताको प्राप्त सभी केवलज्ञानियोकी समझना चाहिये ।
व्यापक कहा गया है। यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि आगममे जब २. स्वात्मस्थित. सर्वगतः समस्तव्यापारवेदी विनिवृत्तसग. । १. इस स्पष्टीकरणकी माधारभुत प्रवचनसार की अगली
प्रवृद्धकालोऽप्यजरो वरेण्यः पायादपाया पुरुष, पुराणः ।। ये तीन गथाये रही है
(विपापहार १)
३. नमः श्रीवर्धमानाय निर्धतकलिलात्मने । णाणप्पमाणमादा ण हवदि जस्सेह तस्स तो मादा।
सालोकाना त्रिलोकाना यद्विद्या दर्पणायते ।। हीणो वा अधिगो वा णाणादो हवदि धुवमेव ॥२४॥
(र० क० श्रा०१) हीणो जदि सो प्रादा तण्णाणमचेदण ण जाणादि ।
तज्जयति परं ज्योतिः समं समस्तैरनन्तपर्यायः । अधिगो वा जाणादो णाणेण विणा कहं णादि ॥२५॥ दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थमालिका यत्र । सब्य गदो जिणवमहो सब्वे वि य तग्गया जगदि अट्ठा ।
(पु० सि. १) णाणमयादो य जिणो विसयादो तस्स ते भणिदा ॥२६॥ ४. इस व्याख्या का प्राधार प्राचार्य अमृतचन्द्र की वृत्ति