________________
मुल्तार सा० को बहुमुखी प्रतिभा
२३१
दूसरे अजीवाधिकार मे तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार पचास्तिकाय (७४-७५) ग्रादि ग्रन्थो मे जो पुद्गल के धर्मादि द्रव्यों के उपकार को बतलाकर (१५-१७) प्रागे स्कन्ध, स्कन्धदेश, रकन्धप्रदेश और परमाणु इस प्रकार यह कहा गया है
चार भेद निर्दिष्ट किये गये है तथा उनका स्वरूप भी पदार्थानां निमग्नानां स्वरूपं[-पे] परमार्थतः ।
कहा गया है वह उसी प्रकार प्रकृत ग्रन्थ में भी (२-१६) करोति कोऽपि कस्यापि न किंचन कदाचन ।। सक्षेप से कहा गया है। इसकी व्याख्या में भाष्यकार ने ___ यहा परमार्थत.' पद पर बल देते हुए व्याख्या मे ।
उसे स्पय्ट करते हुए कहा है कि सख्यात, असख्यात, उसका स्पष्टीकरण यह किया गया है कि यह जो उपकार अनन्त अथवा अनन्तानन्त परमाणुमो के पिण्डरूप वस्तु का कथन है वह व्यवहार नय के प्राधित है। निश्चयनय
को स्वन्ध कहा जाता है। स्कन्ध का एक-एक परमाणु की अपेक्षा सभी द्रव्य अपने-अपने स्वरूप में निमग्न होकर
करके खण्ड होते-होते जब वह आधा रह जाता है तब स्वभाव परिणमन ही करते है उनमें से कोई भी द्रव्य
वह देश स्कन्ध कहलाता है। इसी क्रम से जब यह देश किसी अन्य द्रव्य का उपकार-अपकार नहीं करता। इन
स्कन्ध प्राधा रह जाता है तब वह प्रदेश स्कन्ध कहलाता द्रव्यों मे धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चार द्रव्य तो
है। प्रदेश स्कन्ध के खण्ड होते-होते जब उसका खण्ड सदा ही अपने स्वभाव में परिणत रहते हैं, इसलिए वे
होना सम्भव नही रहता तब वह परमाणु कहलाता है। वस्तुतः किसी का भी उपकार नहीं करते। जीव और
इस प्रकार मूल स्कन्ध के उत्तरवर्ती और देश स्कन्ध के पुद्गल ये दो द्रव्य वैभाविकी शक्ति से सहित होने के
पूर्ववर्ती जितने भी खण्ड होंगे उन सबको स्कन्ध ही कहा कारण स्वभाव और विभाव दोनों प्रकार का परिणमन
जाता है। इसी प्रकार देश स्कन्ध आदि नामो का क्रम करते है। जीवो में जो विभाव परिणमन होता है वह
भी जानना चाहिये। कर्म तथा शरीरादि के सम्बन्ध से ससारी जीवों में ही इन उदाहरणो से स्पष्ट है कि मुख्तार सा० ने जितने होता है-मुक्त जीवो मे कर्म और शरीर का अभाव हो ग्रन्थों का भाष्य लिखा है वह उनके प्रकाण्ड पाण्डित्य का जाने के कारण वह नहीं होता, उनमे केवल स्वभाव परि- परिचायक है-वे इस महत्त्वपूर्ण कार्य में सर्वथा सफल
परमाणुमा म स्वभाव रहे है। उनके इन भाष्यों से ग्रन्थों का महत्व और भी परिणमन और स्कन्धो मे विभाव परिणमन होता है।
बढ़ गया है। इन भाष्यो के आधार से सर्वसाधारण उन रही है-ज्ञान हि त्रिसमयावच्छिन्नसर्वद्रव्य-पर्याय- ग्रन्थो के मर्म को भली भाति समझ सकते है। रूपव्यवस्थितविश्वज्ञेयाकारानाक्रामन् सर्वगतमुक्तम्, १. इस व्याख्या का प्राधार पचास्तिकाय की यह जयसेन तथाभूतज्ञानमयीभूय व्यवस्थितत्वाद् भगवानपि वृत्ति रही है--समस्तोऽपि विक्षितघट-पटाद्यखण्डसर्वगत एव । एव सर्वगतज्ञानविषयत्वात् सर्वेऽर्था
रूपः सकल इत्युच्यते, तस्यानन्तपरमाणुपिण्डस्य अपि सर्वगतज्ञानाव्यतिरिक्तस्य भगवतस्तस्य ते विषया
स्कन्दसज्ञा भवति । तत्र दृष्टान्तमाह-षोडशपरमाणुइति भणितत्वात् तद्गता एव भवन्ति । तत्र निश्चय
पिण्डस्य स्कन्दकल्पना कृता तावत् एककपरमाणोरनयेनानाकुलत्वलक्षणसौख्यसदनत्वाधिष्ठानत्वावच्छि
पनयेन नवपरमाणुपिण्डे स्थिते ये पूर्वविकल्पा गतास्तेन्नात्मप्रमाणज्ञानस्वतत्त्वापरित्यागेन विश्वज्ञेयाकारा
ऽपि सर्वे स्कन्दा भण्यन्ते । अष्टपरमाणुपिण्डे जाते ननुपगम्यावबुध्यमानोऽपि व्यवहारनयेन भगवान् सर्व
देशो भवति, तत्राप्येककापनयेन पञ्चपरमाणुपर्यन्तं गत इति व्यपदिश्यते । तथा नैमित्तिकभूतज्ञेयाकारा
ये विकल्पा गतास्तेषामपि देशसजा भवति । परमाणुनात्मस्थानवलोक्य सर्वेऽस्तिद्गता इत्युपचर्यन्ते, न चतुष्टयपिण्डे स्थिते प्रदेशसज्ञा भण्यते, पुनरप्येककाच तेषा परमार्थतोऽन्योन्यगमनमस्ति, सर्वद्रव्याणां स्व- पनयेन द्वयणुकस्कन्दे स्थिते ये विकल्पा गतास्तेषामपि रूपनिष्ठत्वात् । अयं क्रमो ज्ञानेऽपि निश्चेयः । प्रदेशसंज्ञा भवति । ....... 'परमाणुश्चैवाविभागीति । (प्रवचनसार १-२६)।
(पंचास्तिकाय ७५)