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वह युग-सृष्टा सन्त ?
मनु ज्ञानार्थी
वह सरसावा का सन्त ! तप: पूत व्यक्तित्व ! तिल-तिल कर प्रात्माहुत मनीषि ! जब-जब समाज को स्मृति के जर्जर-कुरूप-वातायन में पाया है मैं उदास हो गया हूँ। जिस ऊर्जस्ति मेधा ने विस्मृति के गर्भ में खोया हुआ प्राचार्य समन्तभद्र जैसा नर-शार्दूल, दीमकों का प्राहार बनने से बचाया और संस्कृति का दर्पण साहित्य इतना दमकाया, इतना उद्भासित किया कि मनुवार-चेता वाग्मियों को भी स्वीकारना पड़ा-- "श्रमण-संस्कृति भारत को प्रक्षय-निधि है"; एक दिन हाय ! जब वह भास्कर-सा भास्वर जगमगा रहा था साहित्य के गगन-में चिर-कुटला दिल्ली, भोगभूमि दिल्ली, वही दिल्ली जिसने गांधी को भी नहीं जाने दिया, वैभव के प्रकोष्ठ में घेर कर बैठ गयी उसे और नागिन-सी कुण्डली मार कर लपेट लिया उस साहित्य-देवता को !
और, चिर-सामाजिक-व्यक्तित्व के मुखोटे, जो न कभी सामाजिक थे और न अाज हैं, वंश मार-मार कर चूसने लगे चिर-संचित अशेष तपोबल-अमृत उसका । वैभव के पुजारियों की कारा में, छली गयी सरस्वती, बन्दिनी बना ली गयी ! अफसोस ! एक व्यवस्था ने उसे सामान्य प्रादमी को तरह भी नहीं जोने दिया ! हे युगवीर ! जब-जब तुम्हें सामाजिक-व्यक्तित्व के मुखौटों में छिपे भेड़ियों ने स्मरण किया है। मेरी अशेष चेतना तिलमिला उठी है
और मैं उस व्यवस्था के प्रति विद्रोह करने को पागल हो उठा हूँ जो आदमी को आदमी की तरह नहीं जाने देती। लेकिन कितनी विवशता हैजो निष्ठुर हाथ युग-चेतना को निष्प्राण बना देते हैं वही श्रद्धा-सुमन अर्पित करने वालों में मगरमच्छ के आंसू लिये प्रथम पंक्ति में खड़े होते हैं ? इतिहास अपने आप को दुहराता है, शायद, कभी कोई नयी पीढ़ी पायेगी
और तुम्हें भी प्राचार्य समन्तभद्र की तरह दीमकों का प्राहार बनने से बचायेगी।