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________________ दिगम्बर परम्परा में आचार्य सिद्धसेन श्री कैलाशचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री प्राचार्य सिद्धसेन जैन परम्परा के प्रख्यात ताकिक रचयिता थे और दूसरे थे महापुराण (प्रादिपुराण) के और ग्रन्थकार थे। जैन परम्परा दोनों ही शाखाओं में रचयिता । दोनों ने ही अपने-अपने पुराणों के प्रारम्भ में उन्हें समान आदर प्राप्त था। किन्तु आज उनकी कृतियों अपने पूर्वज प्राचार्यों का स्मरण करते हुए सिद्धसेन का भी का जो समादर श्वेताम्बर परम्परा में है वैसा दिगम्बर स्मरण किया है। परम्परा में नहीं है। किन्तु पूर्वकाल मे ऐसी बात नही हरिवंशपुराण मे स्मृत प्राचार्यों को नामावली इस थी। यही दिखाना इस लेख का मुख्य उद्देश्य है। प्रकार है । समन्तभद्र, सिद्धसेन, देवनन्दि, वज्रसूरि, महानामोल्लेख: सेन, रविषेण, जटासिहनन्दि, शान्त, विशेषवादि, कुमारउपलब्ध दि. जैन साहित्य में सिद्धसेन का सर्वप्रथम मेनगुरु और वीरसेनगुरु और जिनसेन स्वामी । नामोल्लेख अकलकदेव के तत्त्वार्थवार्तिक मे पाया जाता आदिपुराण में स्मृत प्राचार्यों की तालिका इस प्रकार है। तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय के तेरहवे सूत्र में प्रागत है : सिद्धसेन, समन्तभद्र, श्रीदत्त, प्रभाचन्द्र, शिवकोटि, 'इति' शब्द के अनेक अर्थों का प्रतिपादन करते हुए अक जटाचार्य, काणभिक्षु, देव (देवनन्दि), भट्टाकलक, श्रीपाल, लकदेव ने एक अर्थ 'शब्दप्रादुर्भाव' किया है। और उसके पात्रकेसरी, वादिसिह, वीरसेन, जयसेन, कवि परमेश्वर । उदाहरण मे श्रीदत्त और सिद्धसेन का नामोल्लेख किया प्रायः सभी स्मत आचार्य दिगम्बर परम्परा के है। है। यथा उन्हीमे सर्वोपरि सिद्धसेन को भी स्थान दिया गया है जो 'क्वचिच्छब्दप्रादुर्भावे वर्तते-इति, श्रीदत्तमिति सिद्धसेनमिति' विशेष रूप से उल्लेखनीय है। (त० वा. पृ०५७) हरिवंश पुराणकारने सिद्धसेन का स्मरण इस प्रकार किया हैश्रीदत्त दिगम्वर परम्परा मे एक महान् प्राचार्य हो जगत्प्रसिद्धबोधस्य वृषभस्येव निस्तुषाः । गये है । प्राचार्य विद्यानन्द ने अपने तत्त्वार्थ' श्लोकवार्तिक बोधयन्ति सतां बुद्धि सिद्धसेनस्य सूक्तयः ॥३०॥ में उन्हे त्रेसठ वादियो का जेता तथा 'जल्पनिर्णय' नामक जिनका ज्ञान जगत मे सर्वत्र प्रसिद्ध है उन सिद्धसेन ग्रन्थ का कर्ता बतलाया है। अतः उनके पश्चात् निर्दिष्ट की निर्मल सूक्तियाँ ऋषभदेव जिनेन्द्र की सूक्तियो के सिद्धसेन प्रसिद्ध सिद्धसेन ही होना चाहिए । अकलकदेव समान सज्जनों की बुद्धि को प्रबुद्ध करती है । की कृतियो पर उनके प्रभाव की चर्चा हम आगे करेगे । अतः अकलकदेव ने श्रीदन के साथ उन्ही का स्मरण किया, इसके पूर्व समन्तभद्र के वचनों को वीर भगवान के यही विशेष सभव प्रतीत होता है। वचनतुल्य बतलाया है। और फिर सिद्धसेन की सूक्तियो को भगवान ऋषभदेव के तुल्य बतला कर उनके प्रति एक गुणस्मरण: तरह से समन्तभद्र से भी अधिक आदर व्यक्त किया है । विक्रम की नवी शताब्दी में दिगम्बर परम्परा मे दो यहाँ सूक्तियो से सिद्धसेन की किसी रचनाविशेष की पोर जिनसेनाचार्य हुए है। उनमे से एक हरिवशपुराण के सकेत प्रतीत नही होता। किन्तु महापुराण मे तो अवश्य १. द्विप्रकार जगौ जल्पं तस्वप्राति भगोचरम् । ही उनके सन्मतिसूत्र के प्रति सकेत किया गया है। यथात्रिषष्टेवादिना जेता श्रीदत्तो जल्पनिर्णये ।।४।। प्रवादिकरियूथाना केसरी नयकेसरः । -त० श्लो० वा० पृ० २८० । सिरसेनकविर्जीयाद्विकल्पनखराङ्कुरः ॥४२॥
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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