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________________ जैन समाज के भीष्मपितामह डा. देवेन्द्रकुमार शास्त्री एम. ए. पी-एच. डी. उन्नीसवी शताब्दी का वह अरुण युग जिसमें सभ्यता को सदा अकेले ही भल कर राष्ट्र का पथ प्रशस्त किया। और संस्कृत ही नही शिक्षा और संस्कार पश्चिमोदय के वे संघर्षों से अकेले जूझते रहे । और सवा समाज को प्रभात मे इस देश के जन-मानस पर प्रकित हो रहे थे कुछ न कुछ नही अपितु बहुत ही अमूल्य देते रहे । उनके उसी युग मे भारतीय श्रमण सस्कृति से प्राप्यायित, पूर्व जीवन मे अवरोधक बहुत रहे, किन्तु उनकी उन्होने कभी जन्म के संस्कारों से समन्वित बालक किशोर' ने जैन चिन्ता नहीं की। उनकी जीवनव्यापिनी चिन्ता एक ही कुल में जन्म लिया। बचपन से ही उसकी प्रतिभा तथा रही और वह थी साहित्य की गवेषणा तथा जनसिद्धान्त सुसंस्कारों का विकास हो चला था, यह उनके जीवन की की प्रतिष्ठा । उनका जोवन ऐसे ही पार्थ धनुर्घरो के लिए विविध घटनामो से प्रमाणित होता है। प्रत्येक व्यक्ति के समर्पित था। वे आसन्न काल तक कभी इस भीष्म व्रत से जीवन का वास्तविक उन्मेष सघर्षों के बीच होता है। विचलित नहीं हुए, सदा अटल ही रहे। उनकी जीवनजिसके जीवन में और जिस समाज में संघर्ष न हो उसे साधना जितनी सरल और निश्छल थी उतना महान् मृतप्राय समझना चाहिए। जुगलकिशोर मुख्तार के रूप उनका व्यक्तित्व भी। युग-युगों के अनुभवो तथा कर्ममे जैन समाज को एक ऐसा ही व्यक्तित्व मिला था जो निरत साधना में संपृक्त हो उन्होने समाज को जो दिया जन-जीवन को झकझोर कर उसे वास्तविक रूप मे ला वह अपरिमेय तथा अमूल्य है। उन्होंने साहित्य सम्बन्धी देना चाहता था। बाबू सूरजभानु वकील, अर्जुनलाल जी जितना कार्य अकेले किया उतना एक सस्था भी सम्भवतः सेठी और जुगलकिशोर जी ऐसे ही परम्परा के प्रवर्तक थे, न कर पाती। बीरसेवा मन्दिर के प्रकाशनो से स्पष्ट है जिसे पाज की भाषा मे समाजसुधारक कहते है। वास्तव कि उस महान् साहित्यकार ने कितना अधिक कार्य किया। में इस परम्परा का प्रवर्तक जैन समाज के अनुपम विद्वान् कठिन से कठिन तथा अप्रकाशित ग्रन्थो को सरल भाषा गुरुवर्य पं. गोपालदास जी वरैया ने किया था । समय- मे प्रकाशित कर जनसुलभ बनाने में प्रापकी कर्मठ साधना समय पर इन विद्वानो के लेखों ने तथा वक्तृतानो ने जन तथा कठोर श्रम एवं विद्वत्ता श्लाघनीय है। इतना ही समाज में जागृति का शंखनाद फूका, इसमे कोई सन्देह नही, मौलिक साहित्य का सर्जन कर आपने समाज का नहीं है । पं० मुख्तार जी इसी पीढ़ी के विद्वानों मे से थे। एक चेतना तथा जागृति प्रदान की। 'मेरी भावना' तो किन्तु अपनी पीढ़ी में उन्होंने सबसे अधिक कार्य किया। एक राष्ट्रीय गौरव की कृति बन गई है। अकेली इस क्या इतिहास, क्या दर्शन, क्या साहित्य और क्या धर्म- रचना ने ही आपको पर्याप्त यश तथा लोकाथय प्रदान सस्कृति तथा राष्ट्रीयता सभी क्षेत्रों में मुख्तार जी की किया। इसी प्रकार साहित्य के अनाघ्रात क्षेत्र मे 'जैनग्रन्थ प्रवृत्तियां सलग्न रही हैं। उन समस्त प्रवृत्तियों के कार्य- परीक्षा' और चिन्तन-मनम के साथ प्रकाशित 'जैन साहित्य कलापों के मध्य 'युगवीर' का प्रबल व्यक्तित्व सलक्षित और इतिहास पर विशद प्रकाश' जैसे ग्रन्थ लिख कर होता है। मापने अनुसन्धान जगत् मे महत्वपूर्ण स्थान बना लिया असाधारण व्यक्तित्व की भांति पं० मुख्तार जी का है। कृतित्व भी असाधारण रहा है। इसलिए वे जैन समाज में सम्पादन तथा अनुवादभीष्मपितामह के तुल्य थे, जिसने समाज की झंझावातों 'जैन गजट', 'जैन हितैषी' तथा 'अनेकान्त' जैसे
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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