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________________ १०४ अनेकान्त स्कन्ध में है और अन्त्य लघत्व परिमाणु मे'। अब इसके अनायास गंगा जमुना की तरह एकीभूत होकर बहते है। साथ सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक के वक्तव्य की भी तुलना करे। अन्तर केवल इतना ही है कि स्याद्वाद के क्षेत्र में वे प्राज वे लिखते है- "मैं सोचता है हम बहुँधा सत्य व वास्त- से सहस्रो वर्ष पूर्व एक व्यवस्थित विधि मे रख दिये गये विक सत्य के बीच एक रेखा खीचते है। एक वक्तव्य जो है और सापेक्षवाद के क्षेत्र मे वे आज चिन्तन की स्थिति कि केवल पदार्थ के बाह्य स्वरूप से हो सम्बन्ध रखता है, पर ऋमिक विकास पा रहे है। उदाहरणार्थ-सत्यासत्य कहा जा सकता है कि वह सत्य है। एक वक्तव्य जो कि की मीमासा करते हुए रेखागणित व माप-तोल के विषय केवल बाह्य स्वरूप को ही व्यक्त नहीं करता, परन्तु में सापेक्षवाद के अनुसार माना गया है-"रेखागणित के उमकी सतह में रही सच्चाई को भी प्रकट करता है वह अनुसार रेखा वह है जिसमे लम्बाई हो पर चौड़ाई या वास्तविक सत्य है।" स्याद्वाद व सापेक्षवाद की तथा मुटाई न हो । बिन्दु मे मुटाई भी नही होती। दुनिया मे प्रकार की विस्मयोत्पादक समता को देखकर यह तो मान ऐसी रेखा नहीं देखी गई जिसमें चौडाई या मुटाई न हो। लेना पडता है कि स्याद्वाद कोई अधूरे तथ्यो का संग्रह वह उपेक्षणीय या नगण्य दोख सकती है, पर वह है ही नही, अपितु वस्तु तथ्य को पाने का एक यथार्थ मार्ग है नही, नही कह सकते । धरातल की भी यही बात है। जो आज से सहस्रो वर्ष पूर्व जैन दार्शनिकों ने खोज भले ही हमारे दिमाग सिर्फ लम्बाई-चौड़ाई को ही ध्यान निकाला था। उसके तथ्य जितने दार्शनिक है उतने ही मे लाये सिर्फ उन्ही दो परिणामों वाली किसी चीज को वैज्ञानिक भी। वह केवल कल्पनामो का पुलिन्दा नहीं तो प्रकृति ने नही बनाया है। सरल रेखा कागज पर किन्तु जीवन का व्यावहारिक मार्ग है। इसीलिए तो खीची देख कर हम समझ लेते है कि इसकी सरलता प्राचार्यों ने कहा है-"उस जगद्गुरु स्याद्वाद महासिद्धान्त बिल्कुल स्वाभाविक बात है। सरल से सरल रेखा को भी को नमस्कार हो, जिसके बिना लोक व्यवहार भी नही यदि अधिक बारीक पैमाने से जाँचा जाये तो वह पूरी चल सकता।" सरल नही उतर सकती। सहस्रों वर्ष पूर्व और आज : नाप का भी यही हाल है । लम्बाई, चौड़ाई, मोटाई स्याद्वाद और सापेक्षवाद के कुछ प्रमग ऐसे है जो के द्वारा हम जिस विन्दु रेखा, धरातल आदि की व्याख्या १. सोक्षम्य द्विविध अन्त्यमापेक्षिकञ्च । तत्र अन्त्य पर- करते है। उन्हे हम उनकी वास्तविक सापेक्ष स्थिति मे न माणोः; सापेक्षिक यथा नालिकेरापेक्षया ग्रामस्य । लेकर एक पादश मान के लेकर एक आदर्श मान के रूप मे लेते है। लम्बाई नापने स्थौल्यमपि द्विविध, तत्र अन्त्य प्रदोष लोकव्यापि- के लिए कोई स्थिर पादर्श मानदण्ड नही मिल सकता। महास्कन्धस्य, यापेक्षिक यथा प्रामापेक्षया नालिके- ठोस से ठोस धातु का ठीक से नापा हा मानदण्ड लोहे रम्य । -श्रीजैन सिद्धान्त दीपिका, प्रकादा १. या पीतल का तार या छह भी एक दिशा से दूसरी दिशा मूत्र १२ । घूमने मात्र से अपनी लम्बाई का करोडबा हिम्सा घट या २ I think we often draw a distinction bet- बढ़ जाता है। एक ही जमीन की भिन्न-भिन्न समय मे ween what is truc and what is really true. या भिन्न-भिन्न आदमियों द्वारा की गई जितनी नापिया A Statement which does not profess to होती है वे सूक्ष्मता मे जाने पर एक सी नहीं उतरती। dcal with any thing except appearances शीशे या प्लाटिनम का खुब सावधानी से निशान लगाया may be true: a statement which is not जाये, जरीब से नापा जाये, तो भी नापियो में कुछ न only true but deals with the realities be- कुछ अन्तर रह ही जाता है, फिर दिशा बदलने से लम्बाई neath the appearances is really true. का फर्क होता है, यह अभी कह चुके है। साथ ही ताप३. जेण विणावि लोगस्स ववहारो सव्वहा न निव्वडइ।। मान के परिवर्तन से धातुओं का फैलना-सिकुडना लाजमी तस्स भुवर्णक्क गुरुं णमो अणेगन्तवायस्स ।। है और समयान्तर में भीतरी परमाणुषों की स्थिति में जो
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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