SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वर्शन और विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में : स्यावाव और सापेक्षवाद लगातार अन्तर पड रहा है, वह भी मान मे अन्तर डालता से एक-दूसरे के विपरीत अर्थवाची हो जाते है-जैसे है। खुद नापी जाने वाली जमीन के बारे मे तो यह बात साधारणतया पिता को 'बापू' कहा जाता है। कुछ क्षेत्रों और भी सच है क्योकि वह प्लाटिनम जैसी दृढता नहीं मे छोटे बच्चे को उसका पिता व अन्य 'बापू' कहते है, रखती और नापने वाला तो यदि अपने औजारो की बात पर वे जनपद सत्य के अन्तर्गत मा जाने से असत्य नहीं को न माने तो "मुण्डे मुण्डे मतिभिन्ना" कहावत के अनु- कहे जाते । सार हर एक नापने वाला अपना-अपना अलग ही परिणाम २. सम्मत-सत्य-जन-व्यवहार से जो शब्द मान्य बतलायेगा। किसी नापी (मानदण्ड) को सच्चा मानने के हो गया है । जर्म-पंक से पैदा होने के कारण कमल को वक्त हम उसे परमार्थ को कसौटी पर नही कसने लगते; पकज कहा जाता है पर मेढक को नहीं; हालाकि वह भी क्योकि यह कसौटी मनुप्य की कल्पना के सिवाय और पक से पैदा होने वाला है। अतः इस विषय में कोई तर्क कही है ही नही । यह नापी के परिणाम को बिल्कुल झूट नही चल सकता कि उसे भी पकज क्यो नहीं कहा जाये । कह कर उसे व्यवहार से बहिष्कृत नही कर सकते है। ३. नाम-सत्य-किसी का नाम विद्यासागर है और हमारा सच्चा मान वह है जो कि भिन्न-भिन्न नापियो का वह जानता क, ख, ग भी नही। लोग उसे विद्यासागर माध्यम (औसत) है। सावधानी के साथ जितनी अधिक कहते है तो भी असत्यवादी नहीं कहे जाते, क्योकि उनका नापिया की जायेंगी, माध्यम उतना ही ठीक होगा और कहना नाम-सापेक्ष सत्य है । नाम केवल व्यक्ति के पहचान जो नापी इस माध्यम के समीप होगी वहीं सत्य होगी। की कल्पना है। अतः यह नही देखा जाता कि उसके इन बातों से या तो पता लग गया कि ताकिको ने वास्त- जीवन के साथ वह कितना यथार्थ है। विकता की अच्छी तरह छानबीन किये बिना जो सिर्फ ४. स्थापना-सत्य-किसी वस्तु के विषय में कल्पना तकं से किसी बात को स्वय मिद्ध कर डाला है, वह उन्ही कर लेना । जैम १२ इच का एक फीट, ३ फीट का १ के शब्दो मे मान लेने लायक नहीं है। हमारी उक्त परि- गज । इतने तोलो का सेर है या इतने मेरो का मन है। भापाए ठीक हो सकती है यदि उन्हें परमार्थ-मत्य मानने यह स्थापना देश, काल की दृष्टि से भिन्न-भिन्न होती है, की जगह हम मापेक्ष-सत्य कहे। अधिक वक्र की अपेक्षा पर अपनी-अपनी अपेक्षा से जब तक व्यवहार्य है तब तक कोई रेखा सरल हो सकती है। अधिक मोटे बिन्दुनो या सब सत्य है। मत्य के इस भेद में अपेक्षावाद के उक्त अत्यन्त क्षद्र रेखायो की अपेक्षा किसी बिन्दु को लम्बाई माप, तोन गणित आदि के सारे विचार समा जाते है। चौडाई को हम नगण्य समझ सकते है । हमारे सभी माप- वे सब सापेक्ष-मत्य है। एक मानदण्ड में सूक्ष्म दृष्टि से नोन सापेक्ष है।" म्याद्वाद भी उक्त प्रकार की अपेक्षा चाहे प्रनिक्षण किराना ही अन्तर पडता हो, पर जब तक त्मक समीक्षामो से भरा पडा है । जैन पागम श्रीपन्नवणा- पवहार्य है तब तक वह सत्य ही माना जायेगा। वास्त. सूत्र में सत्य के भी दश भेद कर दिये गये है। जहाँ विक दष्टि में सापेक्षवाद के अनुसार जिस प्रकार मानदण्ड मापेक्षवादी व्यावहारिक माप तोल आदि को कुछ डरने प्रादि में प्रतिक्षण परिवर्तन माना है, स्याद्वाद शास्त्र में हा-से सत्य में समाविष्ट करने लगते है, वहाँ लगभग सभी उम परिवर्तन का विवेचन और गभीर व व्यापक मिलता प्रकार का आपक्षिक सत्य दस भागों में विभक्त कर दिया है। स्याद्वाद के अनुसार वस्तु ही वह है, जिसमे प्रतिक्षण गया है । दश भाग इस प्रकार है नये स्वरूप की उत्पति, प्राचीन स्वरूप का नाश और १. जनपद-सत्य (देश सापेक्ष सत्य)-भिन्न-भिन्न मौलिक स्वरूप की निश्चलना हो । प्रतिक्षण परिवर्तन के देशो की भिन्न भिन्न भाषाएँ होती है। प्रत. प्रत्येक पदार्थ विषय मे दोनों वादा का एक-सा सिद्धान्त एक-दूसरे की के भिन्न-भिन्न नाम हो जाते है पर वे सब अपने देश की सत्यता का पोषक है। अपेक्षा से सत्य है । कुछ शब्द ऐसे भी होते है जो क्षेत्र-भेद ५. रूप-सत्य-केवल रूप मापेक्ष कथन रूप-सत्य है। १. विश्व की रूपरेखा, अध्याय १, सापेक्षवाद । जैसे-नाट्यशाला मे नाट्यकारो के लिए दर्शक कहा
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy