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देवागम स्तोत्र व उसका हिन्दी अनुवाद
बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्रा
प्राचार्य उमास्वामी द्वारा विरचित तत्त्वार्थसूत्र के स्वरूप का प्रत्यय नही होता तब तक स्थिर श्रद्धा नही हो जिस मंगल-श्लोक में प्राप्त के असाधारण स्वरूप का सकती। इसी अभिप्राय से वे स्वय परीक्षाप्रधानी' बनकर निर्देश किया गया है उस प्राप्त की मीमांसा-समीक्षा प्राप्त की मीमासा मे-'याप्तमीमांसा अपर नाम प्रस्तुत
-रूप प्रस्तुत देवागमस्तोत्र स्वामी समन्तभद्राचार्य के देवागम की रचना मे-प्रवृत्त हुए है। द्वारा रचा गया है। यह शब्द-शरीर से कृश होते हुए प्रस्तुत देवागम मे ११४ श्लोक-दार्शनिक सूत्रात्मक भी गम्भीर अर्थरूप प्रात्मा से बलिष्ठ है । इसमें स्याद्वादका कारिकाएँ-है । प्रारम्भ मे (१-५) उन्होंने देवागमनादि आश्रय लेकर गम्भीर दार्शनिक तत्त्वो का विवेचन किया रूप बाह्य वैभव, निःस्वेदता आदि रूप शारीरिक अतिशय गया है। स्वामी समन्तभद्र ददश्रद्धानी जिनभक्त थे। आगमप्रणयन को महत्व न देकर- इन्हें अव्यभिवरित उनकी जो भी कृतियां उपलब्ध है वे सब ही प्रायः-रत्न- आप्त का स्वरूप न मानकर—अज्ञानादि दोषों (भावकर्मो) करण्डश्रावकाचार को छोड़कर स्तुतिपरक है। यह स्तुति और आवरणो (ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मो) के प्रभावस्वभी उनकी कोरी स्तुति-मात्र गुणगाथा-न होकर गम्भीर रूप वीतरागता, मोक्षमार्गप्रणेतृत्व और सर्वज्ञता को महत्त्व दार्शनिक तथ्यों से परिपूर्ण है। वे तर्कणाशील होते हुए भी दिया है तथा अकाटय अनुमान प्रमाण के द्वारा इस सर्वअतिशय विवेकी थे। प्रस्तुत देवागम अल्पमति भव्य जीवों ज्ञता को सिद्ध किया है । तत्पश्चात् यथार्थवक्तृत्व की हेतुके हितार्थ रचा गया है। उनका एक यही अभिप्राय रहा भूत इस निर्दोपता-वीतरागता-को भगवान् अर्हत में है कि प्रात्महितैषी जन स्याद्वादरूप समीचीन दृष्टि से सिद्ध करते हुए उन्हें प्राप्त मान अन्य एकान्तवादियों में प्राप्त को देखकर-उसके स्वरूप का निर्णय कर-उसके
वताप्तेन श्रेयोमार्गमात्महितमिच्छता सम्यग्मिथ्योपदेशार्थद्वारा उपदिष्ट तत्त्वो को यथार्थ समझते हुए तदनुसार
विशेषप्रतिपत्त्यर्थमाप्तमीमासां विदधानाः श्रद्धा-गुणज्ञसन्मार्ग में प्रवृत्त हों। कारण यह कि जब तक यथार्थ वस्तु
ताभ्या प्रयुक्तमनम. 'कस्माद् देवागमादिविभूतितोऽह १. मोक्षमार्गस्य नेतार भेत्तारं कर्म-भूभृताम् ।
महान् नाभिष्टुतः' इति स्फुट पृष्टा इव स्वामि-समन्तज्ञातार विश्वतत्वानां वन्दे तद्गुणलब्धये ।।
भद्राचार्याः प्राहु२. सुश्रद्धा मम ते मते स्मृतिरपि त्वय्यचन चापि ते,
(अप्टसहस्री पृ. ३) हस्तावजलये कथाश्रुतिरतः कर्णोऽक्षि सप्रेक्षते ।
४ ........" इति तद्वत्तया भगवन् नोऽस्माक परीक्षासुस्तुत्या व्यसनं शिरोनतिपरं सेवेदृशी येन ते,
प्रधानानां महान् न स्तुत्योऽसि । आज्ञाप्रधाना हि त्रिदशातेजस्वी सुजानोऽहमेव सुकृती तेनैव तेजःपते ॥११४
दिक [त्रिदशागमादिक] परमेष्ठिन. परमात्मचिह्न प्रति
पद्यरेन, नास्मदादयस्तादृशो मायाविष्वपि भावात् । (अष्ट३. इतीयमाप्तमीमांसा विहिता हितमिच्छताम् ।
सहस्री पृ. ३) सम्यग्मिथ्योपदेशार्थविशेषप्रतिपत्तये ॥
५. ......."इत्यावरणस्य द्रव्यकर्मणो दोषस्य च भाव
(देवागम ११४) कर्मणो भूभृत इव महतोऽत्यन्तनिवृत्तिसिद्धेः कर्मभूभृता भेत्ता सदेवं निःश्रेयसशास्त्रस्यादौ तन्निबन्धनतया मङ्ग- मोक्षमार्गस्य प्रणेता स्तोतव्यः समदतिष्ठते विश्वतत्त्वाना लार्थतया च मुनिभिः संस्तुतेन निरतिशयगुणेन भग- ज्ञाता च । (अष्टसहस्री पृ. ५५)