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अनेकान्त
इस सब वर्णन के अतिरिक्त पण्डित जी के व्यक्तित्व साहित्य को अमूल्य निधियां है। उनकी वकील-प्रकृति की की कुछ असाधारण विशेषतायें थी, जिनके कारण वे तत्मिक शक्ति बड़ी प्रबल थी और अपने तर्क-क्षेत्र को सर्वदा स्मरणीय रहेंगे। वे "सादा जीवन उच्च विचार" उर्बर बनाने में एकाकी निपुण थे। पन्तिम वर्षों में उनके के श्रेष्ठ निदर्शन थे। उनकी कविता 'मेरी भावना" लेख विचारात्मक श्रेणी के थे। समन्तभद्र, रामसेन, सर्वदा विचारों के उच्चादर्श को प्रस्तुत करती रहेगी। अमितगति सम्बन्धी उनके ग्रन्थ सर्वदा प्रादरभाव से पठउनकी अनेक समीक्षाएँ, निबन्ध परिचयात्मक विवरण नीय रहेंगे। मेरी उन्हें भावभरी श्रद्धांजलि अर्पित है। जैसे कि पात्रकेसरी, समन्तभद्र, सिद्धसेन प्रादि स्थायी
जैन साहित्यकार का महाप्रयाण
पं० सरमन लाल जैन 'दिवाकर' शास्त्री
२२ दिसम्बर १९६८ का वह दुर्दिन जिसने समाज श्री मुख्तार जी का सारा जीवन एक साहित्य शोधक और राष्ट्र के सुप्रसिद्ध साहित्यकार, इतिहास-सर्जक, पत्र- के रूप मे भगवान महावीर की वाणी को देश-विदेश में कार, समाजसेवी अमर जिनवाणी सेवक, साहित्य महारथी, पहुँचाने के प्रयत्न मे लगा रहा। मुख्तार सा० उग्र सुधा'मेरी भावना के अमर सृष्टा, विलुप्त इतिहास के अन्वे- रक थे, उनका सुधार मार्ग केवल ऊपरी बातों तक ही षक श्रद्धेय आचार्य जुगलकिशोर जी मुख्तार 'युगवीर' को सीमित नही था वे धार्मिक रीति-खोजो में भी सुधारवादी छीन लिया। काल का ऐसा क्रूर प्रहार जो हमारे बीच से थे। इसी सुधारवाद धूनने उन्हे साहित्य का रसिक हो प्रतिभा के धनी साहित्य जगत के सेवी को उठा ले गया नदी साहित्य का सप्टा एव महारथी के पद पर आसीन और हम सबको साहित्य क्षेत्रों में अनाथ कर गया । कर दिया । शास्त्रो का पालोडन करके उनके प्राधार पर साहित्यिक क्षेत्र मे यह पूर्ति कई सदियों में हुई थी।
ही उन्होने सुधार मार्ग बनाया था। अपने पक्ष की पुष्टि और शायद अब होने की कोई सम्भावना नही है । साहित्य
मे वे प्रमाणो की ऐसी शृङ्खला बाँधते थे जिसे तोड़ना क्षेत्र का यह खाना अपूर्ण ही रहेगा।
कठिन होता था। आपकी अलौकिक प्रतिभा एवं विद्वत्ता ने विश्व को आप जैनसमाज के एक मात्र साहित्य स्तम्भ थे साहिमेरी भावना जैसी, राष्ट्रीयता से भरी धार्मिक, प्राध्या- त्यिक क्षेत्र में समाज को पाप पर गर्व था। पाप कर्मठ त्मिक, विश्व के जन-जन की भावनाओं को उनके अन्दर निस्वार्थ साहित्यसेवी, पुरातत्ववेत्ता, महान् दार्शनिक एवं से खीचकर गंथी एक माला दी जिसे हर राष्ट हर कौम जैन इतिहास के अन्वेषक थे। का व्यक्ति चाहे जो भी इसे अपने गले में पहिनता है वही
ऐसे महान् उपकारक मूक साहित्यसेवी विद्वान् के खुश होकर झूम उठता है, और धार्मिकता के सागर में देहावसान हो जाने पर समाज की सच्ची श्रद्धांजलियाँ हिलोरे लेने लगता है। तभी अनायास ही उसके मुंह से उनके प्रति तभी मानी जायगी जबकि उनके द्वारा संचायह शब्द निकल पड़ते है कि किस साहित्य महारथी ने लित जैन वाङ्यमय और इतिहास का अध्ययन एव मनुयह माला गूंथी है । जिसका एक-एक फूल (शब्द) अनन्त संधान उसी प्रकार चलता रहे समाज पूरा सहयोग देता संसार में अपनी सुरभि फैला रहा है।
रहे । यही मुख्तार सा० के प्रति सच्ची श्रद्धांजलियाँ होंगी।