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संस्कृत से प्रति क्यों
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न केवल अधिकतर वैज्ञानिक बन पडा है बल्कि सुविधा- मे लाने का सर्वोत्तम माध्यम है समालोचना । सस्कृत में जनक भी हो गया है। व्याकरण के ऐसे सस्करण का इने-गिने ग्रन्थो की ही अभी समालोचना प्रस्तुत की जा प्रभाव भी सस्कृत के प्रति प्रावश्यक रुचि नही उत्पन्न सकी है । सस्कृत ग्रन्थो के तुलनात्मक अध्ययनकी भी बड़ी होने देता।
कमी है। इसी तरह विश्लेषण, व्याख्या, टीका, अनुवाद
आदि बहुत मात्रा में उपलब्ध नहीं है। संस्कृत ग्रन्थों के माधुनिक शैली में प्रकाशन का प्रभाव :
इन सब कमियो और अभावो की पूर्ति किये बिना प्रथम तो संस्कृत के सम्पूर्ण ग्रन्थ ही प्रकाश में नही ।
सम्पूण ग्रन्थ हो प्रकाश में नहा सस्कृत के प्रति समुचित रुचि जाग्रत नहीं हो सकती। पाए है और जो पा भी गये है, उनमे बहुत ही कम ऐसे है जिन्हे आधुनिक शैली मे सम्पादित और प्रकाशित किया नवीन साहित्य-सर्जना की कमी : गया है। विशेषत सस्कृत ग्रन्थो के प्रकाशन मे अर्थोपार्जन किसी भी उन्नत भाषा का यह प्रधान लक्षण है कि का चक्कर बहुत बड़ा अभिशाप बनकर सामने आया है। उसमे साहित्य सर्जना निरन्तर होती रहे । इस दृष्टि से जिनके प्रकाशन देश-देशान्तरो मे बिकते हों उन प्रकाशको वर्तमान युग में संस्कृत भाषा को उन्नत नहीं कहा जा से भी अपने ग्रन्थों को अत्यन्त हीन दशा मे प्रकाशित पाकर सकता। स्व० पण्डिन अम्बिकादत्त व्यास, डा० के० एस० सस्कृत निश्चय ही अपना भाग्य कोसती होगी। सैकर्डी नागराजन और पण्डित क्षमाराव प्रादि ने कुछ साहित्य उदाहरणो में से हम एक हितोपदेश जैसे शिक्षाप्रद और लिखा है और है भी वह उच्चकोटि का, परन्तु मात्रा की विश्वप्रिय अन्थ को ले । एक जगत्प्रसिद्ध प्रकाशक ने इस दृष्टि से वह सब नगण्य है। ग्रन्थ का एक छात्रोपयोगी सस्करण निकाला था जिसकी लाखो प्रतिया बिक चुकी होगी और बिक रही होगी।
विश्वविद्यालयों द्वारा अपर्याप्त सहयोग : इस सस्करण का कागज, जिल्द, छपाई, गेट अप आदि तो
अधिकाश विश्वविद्यालयो मे सस्कृत के पठन-पाठन अत्यन्त निम्न कोटि के है ही, प्रफ की अगणित प्रशद्धिया, की समुचित व्यवस्था है। संस्कृत के प्रचार-प्रसार मे सम्पादन की अवैज्ञानिकता, साथ मे संजोई गई टीका की उनका यह सहयोग सराहनीय है, पर पर्याप्त नहीं । आज क्लिष्टता, हिन्दी अनुवाद का पुरानापन और शिक्षा मनो- सस्कृत की अनेक शिक्षा-सस्थाएं और परीक्षालय चल रहे विज्ञान के अनुसार आवश्यक भूमिका, प्रश्नावली, परिशिष्ट है। उनमे से कुछ अत्यन्त उच्चकोटि के है और कुछ स्वय आदि का प्रभाव इत्यादि भी शोचनीय है। कुछ ग्रन्थ ऐसे शासन द्वारा संचालित होते है। पर इन्हें भी ये विश्वभी प्रकाशित किये गये और किये जा रहे है जो किसी भी विद्यालय मान्यता नहीं देते। और तो और, एक शासन गहनवन से कम नहीं होते। उनमें विराम चिह्नों, अन- द्वारा संचालित विश्वविद्यालय भी है। जिसकी प्राचार्य च्छेदो, शीर्षकों और खण्ड- उपखण्डो प्रादि की योजना पराक्षा का बा० ए० क तो होती ही नहीं, यह भी हूँढे नही मिलता कि अध्याय ही विश्वविद्यालय है । फलस्वरूप बी० ए० और एम० ए० या परिच्छेद कहाँ बदल गये है।
के माध्यम से पल्लवग्राही सस्कृतज्ञ तो बहूत तैयार हो रहे यह स्पष्ट करने की आवश्यकता नही कि ऐसे प्रका
है, पर शास्त्री और प्राचार्य के माध्यम से तैयार होने शनों से संस्कृत के प्रसार मे कितनी बाधा पहुँच पाती है।
वाले ठोस और पारगामी संस्कृतज्ञ, दिनों-दिन कम होने यह भी स्पष्ट है कि उत्तम प्रकाशनों के अभाव मे लाखो जा रह है। विद्या प्रेमियों को सस्कृत ग्रन्थो के अध्ययन से वचित रह हिन्दी के प्रति विरोध: जाना पड़ता होगा।
कुछ अग्रेजी प्रेमी विद्वान् और नेता हिन्दी का विरोध समालोचना और तुलनात्मक अध्ययन की कमी
करने पर तुले हुए हैं। हिन्दी के प्रति अपने विरोध को प्राज का युग समालोचना का है। वाङ्मय को प्रकाश पुष्टतर करने के लिए वे यदा-कदा संस्कृत पर भी टूट