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भनेकान्त
सायी भी थे। और अपने विचारों में चट्टान की तरह से काम लिया। उनकी सहनशीलता ने उन्हें जो शक्ति अडिग रहने वाले थे। सन् १९१७ में जब ग्रन्थ परीक्षा प्रदान की, उससे विरोधियों को मुह की खानी पड़ी और के दो भाग प्रकाशित हुए, इनमे से प्रथम भाग में उमा- धीरे-धीरे वे विरोधी जन भी उनके प्रशंसक बन गए। स्वामी श्रावकाचार, कुन्द-कुन्द श्रावकाचार, और जिनसेन
सन् १९२२ में जब 'विवाह समुद्देश' नाम का ट्रैक्ट त्रिवर्णाचार इन तीन ग्रन्थों की परीक्षा की गई है। प्ररि प्रकाशित ग्रा. तब उसके उत्तर में शिक्षाप्रद शास्त्रीय दूसरे भाय में भद्रबाहुहिता की परीक्षा की गई है, इसमें
उदाहरण' नामक लेख लिखा गया, जिसके उत्तरमें मुख्तार ग्रन्थ के अन्तरंग परीक्षण के साथ, प्रत्येक अध्याय का वर्ण्य
सा० ने सन् १९२५ में 'विवाह-क्षेत्र प्रकाश' नाम की विषय, तुलनात्मक अध्ययन और ग्रन्थ में असम्बद्ध, अव्यव
पुस्तक लिखी, जिसमें शिक्षाप्रद शास्त्रीय उदाहरण का स्थित तथा विरोधी तथ्यों का स्पष्टीकरण किया गया है।
जोरदार खण्डन करते हुए अनेक प्रमाणों द्वारा इसमे लेखक की तटस्थ वृत्ति और विषय का प्रतिपादन
अपनी पूर्व मान्यता को पुष्ट किया। सन् १९२२ मे श्लाघनीय है। .
जैनाचार्यों और जैन तीर्थकरों का शासन भेद ग्रन्थ परीक्षा तृतीय भाग में जो सन् १९२१ में
नाम की पुस्तक लिखी जिसमें जैनाचार्यों और प्रकाशित हमा है । इसमें भट्टारक सोमसेन के त्रिवर्णाचार,
जैन तीर्थकरों के शासन भेद का स्पष्ट निवेचन किया। धर्म परीक्षा, अकलक प्रतिष्ठा पाठ और पूज्यपाद उपासका
पर किसी विद्वान को मुख्तार सा. के खिलाफ लिखने का चार की परीक्षा अंकित है। सोमसेन द्वारा इस त्रिवर्णा
साहरा नही हुआ। क्योंकि म ख्तार सा० ने अपनी लोह चार में वैदिक संस्कृति के हारीत पाराशर और मनु मादि
लेखनी से जो भी लिखा वह सब सप्रमाण और सयुक्तिक विद्वानों के ग्रन्थों के अनेक पद्य ज्यों के त्यो लठाकर रक्खे
लिखा था इस कारण विरोधी जनों को अप्रिय एवं अरुचिगये है। मुख्तार सा० के गम्भीर अध्ययन ने ग्रन्थ की
का कर होते हुए भी वे उसका प्रतिवाद करने में सर्वथा
. अप्रामाणिकता पर यथेष्ट प्रकाश डाला है ।
है ! असमर्थ रहे। उनके युक्ति पुरस्सर लेख को देखकर विरोभट्रारक सोमसेन ने जैन संस्कृति के प्राचार मार्ग धियो को विरोध करने का साहस भी नहीं होता था। को कलंकित किया था। मुख्तार सा० ने ग्रन्थ-परीक्षा इससे पाठक म ख्तार साहब की लेखनी की महत्ता को द्वारा उस कलक को धोकर जन संस्कृति को पुनः सहज ही समझ सकते है । समुज्वल किया। उनकी ग्रन्थ परीक्षण की यह स्वतन्त्र
मुख्तार सा० की महत्ता जैनधर्म पर उनकी प्रगाढ़ विचारधारा विद्वानों के द्वारा अनुकरणीय है। ग्रन्थ परीक्षा श्रद्धा और संयमाराधन की उत्कट भावना से है । वे ज्ञान का चतुर्थ भाग सन् १९३४ में प्रकाशित हुआ है। इसमें के साथ चारित्र को भी महत्व देते थे और जितना उनसे सूर्य प्रकाश ग्रन्थ का परीक्षण किया गया है। जिसमें
हो सकता था उसे वे जीवन मे करते रहे। वे स्वामि पार्षविरुद्ध एवं असंबद्ध बातों का दिग्दर्शन कराते हुए तथा
समन्तभद्रोदित सप्तम प्रतिमा का अनुष्ठान करते थे। अनुवाद सम्बन्धी त्रुटियों का उद्घाटन करते हुए उसे और त्रिकाल सामयिक करना अपना कर्तव्य मानते थे। वे अप्रामाणिक ठहराया है । इस तरह मुख्तार साहब के ये रात दिन साहित्य साधना में सलग्न रहते थे। इसी से चारों परीक्षा ग्रन्थ महत्वपूर्ण कृति है।।
सामाजिक और व्यक्तिगत बुराइयों से बचे रहते थे। मैंने इन परीक्षा ग्रन्थों के प्रकाशन के समय जैन समाज उन्हें कभी दूसरों की निन्दा करते हुए नही देखा । वे कर्मठ में जो वबडर उठा, उसमें मुख्तार सा० को धर्म-विधातक अध्यवसायी और साहित्य तपस्वी थे। साहित्यसृजन के बतलाया गया, अनेक धमकी भरे पत्र मिले पर मुख्तार प्रति उनकी लगन अद्भुत थी। यद्यपि उनके जीवन मे सा० घबडाये नहीं, बिना सोचे समझे ही समाज मे क्षोभ रुक्षता और कृपणता दोनो का सामजस्य था। वे एक की लहर फैली, अनेक स्थिति पालकों ने विविध प्रकार पैसा भी फिजूल खर्च नहीं करते थे। यद्वा तद्वा खर्च दोषारोपण किये । उस समय भी आपने साहस और धैर्य करना उनकी प्रकृति के विरुद्ध था, वे उपयोगिता को