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चित्तौड़ का कीर्तिस्तंभ
श्री पं० नेमचन्द धन्नूसा जन
श्री जैन मन्दिर के आगे मानस्तंभ की रचना एक (१) खण्डहरों का वैभव पृष्ठ ८३-"चित्तौड़ का विशेष गौरवास्पद है। क्योंकि वह मान कषाय का हरण कीर्तिस्तंभ-१९वीं शताब्दी की कला का भव्य प्रतीक है। उसमें करनेवाला होता है, इसीलिए मानस्तंभ को जैन मदिर का जैन मूर्तियों का खुदाव आकर्षक बन पड़ा है। इसका शिल्प पर्याय से निज मन्दिर का दर्शक कहा है। मानस्तंभ का भास्कर्य प्रेक्षणीय है। इस स्तंभ के सूक्ष्मतम अलंकरणों अस्तित्व सभी सातिशय क्षेत्रों में दिखाई देता ही है। को शब्द के द्वारा व्यक्त करना तो सर्वथा असंभव ही है। प्रायः दिगंबर जैन सप्रदाय में ही यह प्रथा प्रचलित है। इतना कहना उचित होगा कि संपूर्ण स्तभ का एक भाग समवशरण में चार दिशा के द्वार के सामने एक-एक मान- भी ऐसा नहीं, जिसपर सफलतापूर्वक सुललित अकन न स्तंभ होने की सूचना शास्त्रों मे मिलती ही है । यद्यपि किया गया हो। सचमुच मे यह श्रमण सस्कृति का एक इसके उद्देश्य के बारे में विवाद है, तथापि अस्तित्व निवि- गौरव स्तभ है। वाद ही है। मानस्तंभ का ही स्थान आगे कई जगह कीति- "इसकी ऊचाई ७५॥ फुट है। ३२ फुट का व्यास है। स्तभों ने ले लिया है । मानस्तभ का सुधारा हुआ रूप अभी तक लोग यह मानते आए है कि इसका निर्माण १२वी यानी कीर्ति स्तभ ऐसा कहा जाय तो अनुचित नही होगा। सदी या इसके उत्तरवर्ती काल मे बघेरवाल वंशीय शाह यहां पर मै सिर्फ चित्तौड के कीर्तिस्तंभ के काल के
जीजा ने करवाया था और कुमारपाल ने इसका जीर्णोद्धार
कराया। एक मत ऐसा भी है कि यह वि. स. ८६५ मे बारे में चर्चा करूंगा । बहुत अच्छा होता कि इस लेख के लिखने के पहले मै उस स्थान को गौरव से देख लेता।
'वना। मेरे ख्याल से उपयुक्त दोनों मत भ्रामक है । लेकिन तब तक इस विषय को वाजू भी न रख सका।
आश्चर्य होता है निर्णायको पर कि उन्होने इसकी निर्माण इसके उल्लेख मैने तीन जगह देखे। (१) मुनि काति
शैली को तनिक भी समझने की चेष्टा नही की । अस्तु । सागरकृत-खंडहरों का वैभव मे (२) डा. जोहरापूरकर.
"इस गौरव स्तभ के निर्माता मध्यप्रदेशातर्गत कारंजा कृत-भट्टारक संप्रदाय मे, तथा (३) डॉ. ज्योतिप्रसाद (प्रभी महाराष्ट्र में है) निवासी पुनसिंह है और १४वी जैनकृत- भारतीय इतिहास : एक दृष्टि में ।
शताब्दी में उसने इसे बनवाया था। जैसा कि नादगाव के
मन्दिर की एक धातु प्रतिमा के लेख से ज्ञात होता है । लेख तीनो के ही कर्तृत्व व काल के विषय पर एक मत है
इस प्रकार है-"स्वस्ति श्री सवत १५४१ वर्षे शाके १४६१ और वह यह कि, बघेरवाल बशी शाह जीजा के पुत्र शाह
(१४०६)प्रवर्तमाने क्रोधिता(न) संवत्सरे उत्तर गणे[ज्येष्ठ] पुनसिंह ने जिसने कारंजामे सवत १५४१ मे प्रतिष्ठा की
मासे शुक्ल पक्षे ६ दिने शुक्रवासरे स्वाति नक्षत्र योगे थी-यह कीर्तिस्तभ स्थापित किया। इस नये विचार को
र कणे मि. लग्ने श्रीवराट् (इ) देश कारजा नगरे श्री बदलने वाला प्रभाव प्राप्त हुआ है । मै इस विचार को
सुपार्श्वनाथ चैत्यालये श्रीमूलसघे सेनगणे पुष्करगच्छे श्रीमत नया इस लिए कहता हूँ कि पहले इसका काल १२वी सदी ।
वृषभसेन-गणधराचार्ये पारपरागत श्रीदेववीर भट्टाचार्याः। या उसके पहले का बताया जाता था। लेकिन मुनि काति सागर के लेख के बाद इस मत मे नया पन आया। वह
तेषा पट्ट श्रीमद्रायराज गुरुवसुधराचार्य महावाद वादीकैसा? इसलिए दोनों के मत प्रागे देकर बाद में अपने (१) प्राचीन जैन स्मारक । को प्राप्त मूर्ति लेख का उल्लेख करूंगा।
(२) जैन सत्य प्रकाश वर्ष ६, पृष्ठ १६६ ।