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________________ अनेकान्त इसके पूर्व इसका अनुवाद श्री ५० जयचन्द्र जी ऐसे ही गम्भीर अध्येता-विशेषकर प्रा. समन्तभद्र का छावड़ा के द्वारा भी किया जा चुका है और वह अनन्त- कृतियो के मर्मज्ञ विद्वान् है । इससे पूर्व उक्त कृतियों में से कीति ग्रन्थमाला से प्रकाशित भी हो चुका । पं० जयचन्द स्वयम्भूस्तोत्र, युक्त्यनुशासन और रत्नकरण्डक (समीचीन जी जैसे ख्याति नामा विद्वान थे, तदनुरूप ही यह उनका धर्मशास्त्र) के अनुवाद भी उनके द्वारा सम्पन्न हो चुके हैं। अनुवाद है । उन्होंने अधिकतर कारिकागत पदो के प्राश्रय से कारिकामो के अर्थ को स्पष्ट किया है, साथ ही अष्ट प्रकृत अनुवाद मे ग्रन्थ के हार्द को सरल व सुबोध भाषा मे व्यक्त किया गया है । यह अनुवाद मूलानुगामी सहस्री के आधार से जहा तहां कुछ विशेष अभिप्राय भी होकर अन्तस्तत्त्व का भी प्रकाशक है। साधारण सस्कृत व्यक्त किया है । पर यह सब ढूढारी भाषा मे उनकी का ज्ञाता भी यदि रुचिपूर्वक संलग्नता के साथ इस अनुवाद अपनी शैली का है। इससे सर्वसाधारण उससे अधिक लाभ को पढ़े तो वह ग्रन्थगत कारिकाप्रो के शब्दार्थ और भावार्थ नहीं ले पाते थे, इसके लिए शुद्ध हिन्दी मे उसके अनुवाद को समझ सकता है। प्रकृत अनुवाद में प्रथमत: कारिकाकी विशेष आवश्यकता थी। प्रसन्नता की बात है कि गत पद या वाक्य के अर्थ को काले टाइप में व्यक्त करके इसकी पूर्ति उपर्युक्त १० जुगल किशोर जी मुख्तार के तत्पश्चात् उसका स्पष्टीकरण मफेद टाइप मे दो डेस(--) अनुभवपूर्ण अनुवाद से हो जाती है। चिह्नो के मध्य में बड़ी खूबी के साथ किया गया है । इसके ग्रन्थ के सम्बन्ध मे जो पूर्व में कुछ थोड़ा सा परिच- पश्चात् आवश्यकतानुसार यत्र तत्र विशेष व्याख्यात्मक अर्थ यात्मक विवेचन किया गया है उसे देखकर पाठक यह भी लिखा गया है। अनुमान लगा सकते है कि केवल ११४ श्लोको में रचित कारिका ३१ का अर्थ-विशेषकर कोष्ठकगत सदर्भ वह छोटा सा दिखने वाला ग्रन्थ कितने गम्भीर अर्थ को ठीक से मुझे समझने में नही आया, सम्भव है मुद्रणदोष लिए हए है। यही कारण है जो उसके ऊपर प्राचार्य भट्ट कूछ रहा हो। इसी प्रकार कारिका १०६ का अर्थ भी, अकलकदेवके द्वारा आठ सौ श्लोक प्रमाण 'अष्टशती जसो जिस रूप में मुद्रित हा है, कुछ अव्यवस्थित सा दिखा है। टीका लिखी गई। पर वह भी इतनी गम्भीर रही है कि इस अनवाद के साथ श्री प० दरबारी लाल जी न्यायासाधारण जन की बात तो क्या, विशेष विद्वान् भी उसके चार्य एम० ए० के द्वारा लिखी गई जो महत्वपूर्ण प्रस्तासमझने में कठिनाई का अनुभव कर सकते थे। इसीलिए वना सम्बद्ध है वह भी ग्रन्थ परिचय के साथ अनेक तथ्यों प्रा. विद्यानन्द ने उक्त अष्टशती से गभित अष्टसहस्री नाम पर प्रकाश डालने वाली है। इससे ग्रन्थ की महत्ता और की आठ हजार श्लोक प्रमाण विस्तृत टीका लिखी। अत: भी बढ़ गई है। ऐसे महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रन्थ का हिन्दी में अनुवाद करना मुख्तार थी जो इस वृद्धावस्था में इस प्रकार की सरल नही है-साधारण विद्वान् के वश का यह कार्य नही पाश्चर्यजनक साहित्य सेवा कर रहे है है। ऐसे अर्थगम्भीर ग्रन्थो का प्रामाणिक अनुवाद उनका है। वे दीर्घ जीवी होकर से साहित्य का सृजन करते रहे महान अध्येता ही कर सकता है। आदरणीय मुख्तार सा. यह हार्दिक कामना है। आत्म-संबोधन ! के ग्रात्मन ! अपने चैतन्य स्वरूप को जानो। उसका काम देखना जानना है। इसके अतिरिक्त जो भी काम होगा वह पर सम्बन्ध से होगा और उस पर को अपना मानना ही सर्व प्रापदाओ का मूल है। पर अपना न हया, न है, न होगा। फिर उसको अपना मानना ही अनन्त ससार का कारण है। यदि इस अनन्त ससार से वचना चाहते हो तो शीघ्र ही इससे सम्बन्ध छोड़ दो। -वर्णों वाणी
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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