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देवागम स्तोत्र व उसका हिन्दी अनुवाद
करने वाले हैं -तो हे भगवन ! वे आपके यहा सुनय वाचक है-तो शब्द का अर्थ जब कोई सद्भावरूप पदार्थ है-मिथ्या नही है, अतः उनका समूह अर्थ क्रिया कारी नही है तब वैसी अवस्था में वह ( वचन ) असत्य ही होने से वस्तु ही है। इस प्रकार उनका समूह मिथ्या ही ठहरता है । कारण यह है कि शब्द का अर्थ जब अन्यापोह हो. ऐसा हमारे यहाँ एकान्त नही है । ( १०७-८) -अन्यव्यावृत्ति-माना जाता है तो गायको लामों' ऐसा
कहने पर अगोव्यावृत्तिरूप कोई पदार्थ नहीं है, जिसके लाने वाक्यार्य विषयक विचार
मे श्रोता प्रवृत्त हो सके । इसीलिए मत्यता का चिन्ह यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि जब वस्तु अने
म्यात्कार-स्याद्वाद-ही है, क्योकि, स्याद्वाद के आश्रित कान्तात्मक है तब वाक्य के द्वारा उसका नियमन कैसे किया
वचन के बोलने में अभीष्ट पदार्थ की प्राप्ति होती है। जा सकता है, जिससे कि प्रतिनियत विषय में लोगो की
तदनुसार 'गाय को लागो' ऐसा कहने पर श्रोता स्वरूप प्रवृत्ति हो मके ? इसके उत्तर स्वरूप यहाँ यह कहा गया
से सत् और पर ( अश्व प्रादि ) रूप से असत् गाय के है कि विधिरूप अथवा निषेधरूप वाक्य के द्वारा अने
लाने में प्रवृत्त होता है । अतः स्याद्वाद के पाश्रित वचन कान्तात्मक वस्ततत्व उसी प्रकार में विधिरूप से अथवा
मत्य और इतर असत्य है, यह सिद्ध ही है। जो प्रतिषेध्य निषेवरूप से-अवश्य नियमित किया जाता है । कारण
-नास्तित्व आदि-का अविरोधी--अविनाभावी-होकर यह कि इसके बिना-यदि वह उक्त प्रकार से नियमित अभीष्ट अर्थ की प्राप्ति का कारण होता है वही विधेय है, नही किया जाता है तो प्रतिषेध से रहित विधि के और
क्योकि, अभिप्राय-पूर्वक जिसका विधान किया जाता है विधि से रहित प्रतिषेध के विशेषणता के घटित न होने स वही बिधेय कहलाता है। तथा प्रादेय और हेय की व्यवस्था विशेषण के बिना वह विशेष्य ही न ठहरेगा। (१०६) भी उसी प्रकार से-परस्पर के अविनाभाव से ही-बनती
प्रत्यक्षादि प्रमाण की विषयभूत वस्तु तत्-अतत स्वरूप है। कारण यह कि विधेय के एकान मे जिस प्रकार किसी है-विरुद्ध धर्म से अधिकृत है। तब यह तत्स्वरूप- को हेयता नही बनती है उसी प्रकार प्रतिषेध्य के एकान्त विविरूप-ही है, इस प्रकार उसे एकान्त स्वरूप से कहने मे कोई भी अभीष्ट पदार्थ प्रादेय नहीं बनता । इससे बाला वचन सत्य नहीं हो सकता । ऐसी दशा में तत्त्वार्थ उपयुक्त स्याद्वाद की सिद्धि होती ही है। (११०-१३) का-जीव जीवादि पदार्थों का यथार्थ उपदेश कैसे दिया।
अन्त मे ग्रन्थकार प्राचार्य समन्तभद्र इस प्राप्तमीमाजा सकता है-ऐसे असत्य वचनो के द्वारा दिया जाने
__ सा-सर्वज्ञ विशेष की परीक्षा-की रचना विषयक अभिवाला उपदेश यथार्थ न होने से ग्राह्य नही हो सकता है। प्राय को व्यक्त करते हए कहते हैं कि जो भव्य जाव वचन का यह स्वभाव है कि वह इतर वचनों के अर्थ के
के आत्महित के--मुक्ति के इच्छुक है वे समीचीन-सम्यनिषेध में स्वतत्र होकर अपने अर्थसामान्य का प्रतिपादन रदर्शनादि स्वरूप मोक्षमार्ग विषयक-और मिथ्याकरता है- अपने अर्थसामान्य के प्रतिपादन के बिना
ससार परिभ्रमण के कारण भूत मिथ्यादर्शनाविषयकवह केवल इतर वचनो के अर्थ का कथन नहीं करता।
उपदेश को सत्यता और असत्यता का निर्णय कर सके, कारण यह कि अपने अर्थसामान्य का प्रतिपादन और इसी अभिप्राय से यह प्राप्तकी मीमांसा की गई है (११४) इतर का निषेध इन दोनों में से किसी एक के बिना वचन का वोलना न बोलने के ही समान है-उसका उच्चारण
हिन्दी अनुवाद करना निरर्थक ही है इसका भी कारण यह है कि वैसी प्रस्तुत ग्रन्थ का हिन्दी अनुवाद प्रसिद्ध ऐतिहासिक अवस्था मे उसका विषयभूत अर्थ 'इस प्रकार से है और विद्वान व समन्तभद्र-भारती के अनन्य उपासक श्रद्धेय प० इस प्रकार से नही है' ऐसी प्रतीति आकाश कुसुम के जुगल किशोर जी मुख्तार के द्वारा किया गया है, जो वीरसमान असम्भव है । इसके अतिरिक्त 'अस्ति' इत्यादि सवा मन्दिर ट्रस्ट प्रकाशन की ओर से अभी कुछ समय सामान्य वचन यदि विशेष में वर्तमान है-अन्यापोह का पूर्व (जून १६६७) ही प्रकाशित हुआ है।