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अनेकान्त
२ हा
के लिए एक गण के मुनि दूसरे गण मे जाते थे और वे गण में जाने के लिए संनद्ध होता है, तब सभी साधार्मिक प्रतिच्छक कहलाते थे। वे मुनि दो प्रकार के होते थे' और रत्नाधिक मुनि उसे पूछते है-क्या तुम उपसपदा पंजरभग्न और पजराभिमुख । यतमान मुनियो के पास जो के लिए दूसरे गण में जाना चाहते हो? वह मुनि उनसे मुनि जाता, वह पंजरभग्न कहलाता और परिभवमान पूछे कि मुझे किस गण में और कौन से प्राचार्य से उपयानी पावस्थों के पास से जो मुनि जाता वह पंजराभिमुख सपदा लेनी चाहिए? बहुश्रुत मुनि जिस गण मे और कहलाता था। पजर उस गण का नाम है जो गण प्राचार्य, जिस आचार्य के लिए कहे, वह उस गण मे और उस उपाध्याय, प्रवर्तक स्थविर और गणावच्छेदक से परिगृहीत प्राचार्य के पास जाकर उपसपदा स्वीकार करे । होता है।
उत्तराध्ययन सूत्र में मुनि के लिए दस समाचारी का वृहत्कल्पसूत्र के मूल पाठ मे उपसपदा के लिए प्राने विश्लेषण किया गया है। वहा उपसंपदा समाचारी के वाला मनि किनकी अनुज्ञा से पाए एतद् विषक परिचर्चा विषय में भी चर्चा की गई है। की गई है।
प्रस्तुत प्रसंग इस तथ्य को स्पष्ट करते हैं कि उस प्राचीन परम्पराग्रो के अनुमार श्रमणसघ-व्यवस्था में समय के धर्म-सघों के प्रवर्तक बहुत उदार होते थे, इसलिए सात पद होते थे-१: प्राचार्य, २. उपाध्याय, ३. स्थविर, अपने शिष्यों को दूसरे गण मे भेजने मे और दूसरे गण के ४. प्रवर्तक, ५. गणी, ६. गणघर, ७. गणावच्छेदक जो शिप्योको अपने गणमे सम्मिलित करनेमे उन्हे कोई आपत्ति मुनि उपसपदा के लिए अपने गण से दूसरे गण में जाता, नही थी। पर अपने गण में सम्मिलित करने वाले आचार्य वह प्राचार्य, उपाध्याय, स्थविर प्रवर्तक गाण गणधर और कौन मुनि किस हेतु से इस गण को स्वीकार करना चाहता गणावच्छेदक की बिना अनुना कही नहीं जा सकता था। है, इस बात की परीक्षा किए बिना उसे अपने गण मे
और गीतार्थ ही जा सकता था, अगीतार्थ नहीं जा सम्मिलित होने की अनुज्ञा नही देते थे। निशीथ-भाष्य सकता था।
में इसका विस्तृत विवेचन मिलता है। व्यवहार सूत्र मे भी एतद् विषयक प्रसग किया गया
समनोज्ञ और असमनोज्ञ दोनो ही प्रकार के मुनि है'। जब एक मुनि अपने गण से उपसंपदा के लिए दूसरे
उपसंपदा के लिए जाते थे। समान सामाचारिक मुनि १. निशीथभाष्य ६३४६ : जयमाण परिहवे ते पागमण
समनोज्ञ कहलाते और भिन्न सामाचारिक मुनि असमनोज्ञ । तस्य दोहि ठाणेहि ।
समनोज मुनि उपसादा के लिए जाते उसके दो हेतु होते पजरभग्न अभिमुहे आवासयमादि पायरिए ।।
थे-ज्ञान और दर्शन । चारित्र उन दोनो गणों मे एक रूप वृहत्कल्पभाष्य, उ० ४, सूत्र १५ : भिक्खू य गणाय
होता था। असमनोज्ञ सविग्न मुनि दूसरे गणों में जाते, वकम्म इच्छेज्जा अन्न गण उपसंपज्जित्ताणं विह- उसके तीन हेतु होने थे। व ज्ञान, दशन के साथ चारित्र रित्तए । नो से कप्पह अणापुच्छित्ता पायरिय वा, का भा विकास चाहत थ । उवज्झाय वा, पविति वा थेर वा, गणिं वा, गणहर
समनोज्ञ और असमनोज दोनो ही प्रकार के मुनि वा, गणावच्छेयं वा, अन्न गण उवसपजित्ताणं अन्न गण ज्जित्ताण विहरसि ? जे तत्थ सव्व राइणीए तं । उवसपज्जिताणं विहरित्तए। तेय से वियरंति, एव वएज्जा, ग्रह भते कस्स कप्पाए ? जे तत्थ बहुसुए त से कप्पह अन्न गणं उवसपज्जित्ताण विहरित्तए । वएज्जा। जवा से भगब व क्खइ तस्स प्राणा उबतेय से नो कप्पह अन्न गण उसपज्जित्ताप्प वायणा निद्दे से चिट्ठिस्सामि ।। विहरित्तए।
४. उत्तराध्ययन, अ० २६, गा० ४ : ३. व्यवहारकल्प, उ०४, सू० १८ : भिव्य गणाप्रो ५. व्यवहार भाष्य, ६४ :
प्रवकम्म अन्न गण उवसंपज्जिताणं विहरेज्जा, त च समणुण्ण दुगणिमित्त उवसंपज्ज ते होइ एमेव । केइ साहम्मिए पासित्ता वएज्जा कं च प्रज्जो उवसपा- अमणुणेणं नरिं विभागतो कारणे माइत्तं