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________________ प्रागम-ग्रन्थों के आधार पर: पारस्परिक विभेद में प्रभेद की रेखाएं दूसरे गण में जाते तो सबसे पहले उनके पाने का उद्देश्य खाने के लिए विगय नही देते है। मैं भुक्त शेष विगय पूछा जाता था। प्राचार्य की अनुज्ञा से और पवित्र उद्देश्य खाना चाहता हूँ। उसका भी निषेव कर देते है। मेरा से आनेवाला मुनि प्राचार्य की अनुमति मिलने पर उस गण शरीर प्रकृति से दुर्बल है, मैं खाने मे दूध, घी, दही आदि में मिल जाता था। पर जो मुनि निम्नलिखित दस कारणों कुछ भी ले लेता हूँ तभी शरीर से कुछ काम कर सकता को लेकर दूसरे गण में सम्मिलित होना चाहता':- हूँ अन्यथा नही ले सकता। क्योकि मेरा शरीर विगय १. कलह करके प्राता, २. विगय [दूध दही आदि न भावित है । विगय के प्रभाव मे न नवीन ज्ञान प्राप्त कर मिलने पर पाता, ३. योग का उद्वहन करने में असमर्थ सकता हूँ और न पूर्व गृहीत ज्ञान को स्थिर रख सकता होकर पाता, प्रत्यनीक के भय से प्राता, अथवा आने वाला हूँ। क्या मै भी उन वृषभ मुनियों की तरह प्रबजित नहीं मुनि ५. स्तब्ध ६. लुब्ध, ७. उग्र, ८ आलसी, . अनुबन्ध हूँ जो उन्हे तो मनचाही विगय मिल जाती है और मुझे वैर और १०. स्वच्छन्द मति होता तो उसको अस्वीकार नहीं मिलती। कर दिया जाता या । योगवाही' अपनी दुविधा इस प्रकार रखता हैप्रत्येक प्रतिच्छक के आने पर प्राचार्य उसे पूछते तुम हमारे संघ के प्राचार्य योगवाही मुनि को एकान्तर उपवास अपने सघ और प्राचार्य को छोडकर यहा क्यों आए हो? करवाते है अथवा एकान्तर पायबिल करवाते है या निविपूर्वोक्त दशकारणों के आधार पर आने काला मुनि अपने कृतिक आहार देते है। इस प्रकार तप करता हुआ मै गण की जीभर पालोचना करता, क्योकि वह उस गण को योग का वहन नही कर सकता इसलिए मै यहा आपकी छोड़ना चाहता था। अनुशासना मे आया हूँ। अपनी बुराइयोको छिपाने की और दूसरों की भूलो प्रत्यनीक के भय से आने वाला मुनि अपनी दलील को प्रकाशित करने की आदत प्राधुनिक जन-मानस की इस प्रकार देता है, उस सघ में एक मुनि मेरा विरोधी तरह अतीत में भी उस रूप मे थी, क्योकि मानवीय दुर्ब है। हरक्षण वह मेरी भूल देखता है, समाचारी मे कही लता सदा एक रूप मे चली आ रही है । भी मेरी भूल हो जाती है तो वह सबके बीच मे मुझे ___ कलह' करके आने वाला मुनि अपनी स्थिति इस टोकता है, तथा भूल न होने पर भी प्राचार्य को शिकायत प्रकार प्रकट करता-उस सघ के सदस्य बहुत झगड़ालू करता है फिर प्राचार्य मेरी भर्त्सना करते हैं । उस स्थिति प्रकृति के है । बात-बात मे मेरे से झगड़ लेते है । मै शान्त मे मैं वहा समाधिस्थ नहीं रह सकता, इसलिए मै अापके रहने की कोशिश करता हूँ फिर भी शान्त नहीं रहने देते, मघ मे सम्मिलित होना चाहता हूँ। इसलिए मै यहा आया हूँ। झगड़ा गृहस्थों और साधुओं दोनो के साथ हो सकता था। स्तब्ध' मुनि आत्म-विश्लेषण करता हुमा कहता है कि उस संघ की समाचारी के अनुमार प्राचार्य का बहुमान विगय' न मिलने से आने वाला मुनि अपना आत्म करना पड़ता है। प्राचार्य चहलकदमी करते हैं तो उनके निवेदन इस प्रकार करता कि उस सघ के प्राचार्य मुझे साथ इधर-उधर घूमना पडता है व्याख्यान देने के लिए १. निशीथ भाष्य ६३२७ : अहिगरण विगति जोए पडि- जाते है अथवा सज्ञाभूमि के लिए जाते है तो हर समय गीए थद्ध लुद्ध णिद्धम्मे । उठना पड़ता है। मेरी कमर में वायु से बहुत दर्द रहता अल्वसाण बद्धवरो स्वच्छंदमती परिहियब्वे ।। २. निशीथभाष्य ६३२८ : गिहिसजए अहिगरणे। ४. वही, ६३३० : एगतर णिविगतो जोगो। विगति ण देति घेत्तु मोत्तु पूरित्त च गहि तेवि ॥ ५. वही, ६३३० पच्चत्थिको व तहि साहू । चक्क खलि. ३. वही, ६३२६ : णय वज्जियाय देहो पगतीए दुबलो ग्रह तेसु गेण्हति छिढ्डाणि कहेति त गुरूण ॥ भते। ६. वही, ६३३१ : चकमणादोव्व उट्ठण कडि गहणे कामो तब्भावियस्स एविहं ग य गहणं धारणं कत्तो ॥ णत्थि तद्धवं ।
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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