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________________ दिगम्बर परम्परा में प्राचार्य सिद्धसेन ८९ गुणवद्रयमित्युक्तं सहानेकान्तसिबये। तिको विवृत किया अर्थात् सन्मतिकी वृत्ति या टीका रची। तथा पर्यायवाव्यं कमानेकान्तवित्तये ॥२॥ ___ यह सन्मति सिद्धसेनकृत ही होना चाहिए । नमः -त० श्लो० वा० पृ. ४३८ सन्मतये' में 'सन्मति' नाम सुमति के लिये ही पाया है। सहानेकान्त की सिद्धि के लिए 'गुणवद् द्रव्यम्' कहा है। दोनों का शब्दार्थ एक ही है। किन्तु सन्मति के साथ तथा क्रमानेकान्त के बोध के लिए 'पर्यायवद् द्रव्यम्' । सन्मति का शब्दालंकार होने से काव्यसाहित्य में सुमति के स्थान मे सन्मति का प्रयोग किया गया है। अर्थात् अनेकान्त के दो प्रकार है : सहानेकान्त और जैन ग्रन्थो मे तो सुमतिदेव का कोई उल्लेख नहीं क्रमानेकान्त । पस्स्पर में विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों मिलता, किन्तु बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षित ने अपने तत्त्वक बस्तु में स्वीकार अनेकान्त है । उनमें से कुछ धम सग्रहके स्याद्वादपरीक्षा और बहिरर्थपरीक्षा नामक प्रकरणों ऐसे होते हैं जो कालक्रम से एक वस्तु मे रहते है, जैसे में समति नामक र जता और असर्वज्ञता, मुक्तत्व अोर ससारित्व । गुण यह सुमति सन्मति टाका के कर्ता ही होने चाहिये । संभसहभावी होते है और पर्याय क्रमभावी होती है अतः एक वतया उसी मे चर्चित मत की समीक्षा शान्तरक्षितने की र से सहानेकान्त प्रतिफलित होता है तो दूसरे से क्रमानेकान्त। है। वैसे मल्लिोणप्रशस्ति मे उनके सुमति सप्तक नामक इस तरह विद्यानन्द ने सिद्धसेन के मतो को अमान्य ग्रन्थ का भी उल्लेख है। यथाया प्रकारान्तर से मान्य करते हुए भी तत्त्वार्थ श्लोकवा- सुमतिदेवमम स्तुत येन वः सुमतिसप्तकमाप्ततया कृतम् । तिक के प्रारम्भ में ही हेतुवाद और पागमवाद की चर्चा परिहतापथतपणाशित के प्रसंग से समन्तभद्र के प्राप्तमीमासा के 'वक्तर्यना'ते' अस्तु, जो कुछ हो, किन्तु इतना निश्चित है कि दिगम्बराइत्यादि कारिका के पश्चात् ही प्रमाणरूप स सिद्धसन के चार्य सुमति ने, जो सम्भवतया विक्रमकी सातवीं शताब्दी सन्मति से भी 'जो हेतुवादपरकम्मि आदि गाथा उद्धृत से बादके विद्वान नही थे, सिद्धसेन के सन्मति पर टीका करके सिद्धसेन के प्रति भी अपना प्रादरभाव व्यक्त किया रची थी। इस तरह सिद्धसेन का सन्मतितर्क सातवीं है, यह स्पष्ट है। शताब्दी से नौवी शताब्दी तक दिगम्बर परम्परा में प्रागटोकाकार सुमतिदेव: मिक ग्रन्थ के रूप में मान्य रहा । संभवतया सुमतिदेव की विद्यानन्द से पहले और सभवतया प्रकलकदेव से भी टीका के लुप्त हो जाने पर पौर श्वेताम्बराचा मभयदेव पर्व दिगम्बर परम्परा में सुमतिदेव नाम के प्राचार्य हो की टीका के निर्माण के पश्चात् दिगम्बर परम्परा में श्रबण बेलगोला की मल्लिषेणप्रशस्ति में कुन्द- उसको मान्यता लुप्त हो गई और श्वेताम्बर परम्परा का कुन्द, सिंहनन्दि, वक्रग्रीव, वचनन्दि और पात्र केसरी की ही ग्रन्थ माना जाने लगा । किन्तु वह एक ऐसा अनमोल के बाद सुमतिदेव की स्तुति की गई है और उनके बाद ग्रन्थ है कि जैनदर्शन के अभ्यासी को उसका पारायण कुमारसेन, वर्द्धदेव और अकलकदेव की। इससे सुमतिदेव करना ही चाहिए। सन्मतितर्क के सिवाय, जो प्राकृतप्राचीन प्राचार्य मालूम होते है। गाथाबद्ध है, संस्कृत की कुछ बत्तीसियाँ भी सिद्धसेनकृत पार्श्वनाथचरित (वि० स० १०८२)के कर्ता वादि है। उनमें से एक बत्तीसी का एक चरण पूज्यपाद देवने राज ने प्राचीन ग्रन्थकारों का स्मरण करते हुए लिखा सर्वार्थसिद्धिटीका के सप्तम प्रध्याय के १३वें सूत्र की व्या ख्या मे उद्धृत किया हैनमः तन्मतये तस्मै भवकूपनिपातिमाम् । वियोजयति वायुभिनंब वषेन संयज्यते' सन्मतिविवृता येन सुलवामप्रवेशिनी ॥२२॥ प्रकलकदेव ने भी अपने तत्त्वार्थवातिक में उक्त सूत्र अर्थात् उस सन्मति को नमस्कार ही जिनने भवकूप में की व्याख्या में उसे उद्धत किया है । और वीरसेन स्वामी पड़े हुए लोगों के लिए सुखधाम में पहुँचानेवाली सन्म (शेष पृष्ठ ६६)
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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