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भ० शुभकीति और शान्तिनाथ चरित्र
पं० परमानन्द शास्त्री शुभकीर्ति नाम के अनेक विद्वान हो गये है। उनमे दीक्षा ले तपश्चरणरूप समाधिचक्र से महादुर्जय मोहकर्म एक शुभकीर्ति बादीन्द्र विशालकीर्ति के पट्टधर थे। इनकी का विनाशकर केवलज्ञान प्राप्त किया पौर अन्त मे बुद्धि पंचाचार के पालन से पवित्र । एकान्तर मादि अघाति कर्म का नाश कर अचल अविनाशी सिद्ध पद प्राप्त उग्रतपों के करने वाले तथा सन्मार्ग के विधिविधान मे किया। कवि ने इस प्रन्थ को महाकाव्य के रूप मे बनाने ब्रह्मा के तुल्य थे, मुनियों में श्रेष्ठ प्रौर शुभप्रदाता थे। का प्रयत्न किया है । काव्य-कला की दृष्टि में भले ही वह इनका समय विक्रम की १३वी शताब्दी है। दूसरे शुभकीति महाकाव्य न माना जाय । परन्तु ग्रन्थकर्ता की दृष्टि इस कुन्दकुन्दान्वयी प्रभावशाली रामचन्द्र के शिष्य थे। और महाकाव्य बनाने की रही है । कवि ने लिखा है कि शान्तितीसरे शुभकीर्ति प्रस्तुत शान्तिनाथ चरित अपभ्रश के रच- नाथ का यह चरित वीर जिनेश्वर ने गौतम को कहा, उसे यिता है। कवि ने अपनी गुरु परम्परा और जीवन ही जिनमेन और पुष्पदन्त ने कहा, वही मैंने कहा है। घटना के सम्बन्ध मे कोई प्रकाश नही डाला। ग्रन्थ की जं प्रत्यं जिणराजदेव कहियं जै गोयमेणं सुव, पुष्पिका वाक्य मे 'उहयभासाचक्कवट्टि मुकित्तिदेव विर- मं सत्थे जिणसेणदेव रइयं जं पुष्फवंतादिही । इये' पद दिया है। जिससे वे अपम्रश और सस्कृत भाषामे तं प्रत्थ सुहकित्तिणा वि भणियं सं रूपचदत्थिय, निष्णात विद्वान थे । कवि ने ग्रन्थ के अन्त मे देवकीति का सपणीणं दुज्जण सहावपरम पीए हिए सगद ॥१०वी सघि उल्लेख किया है। एक देवकीति काष्ठासघ माथुरान्वय के
कवि ने ग्रन्थनिर्माण म प्रेरक रूपचन्द का परिचय विद्वान थे. उनके द्वारा सं० १४६४ प्रापाढ बदी २ क देते हए कहा है कि वे इक्ष्वाकुवशी (जैसवाल वश में) दिन प्रतिष्ठित एक धातु मूर्ति यागरा के कचौडा बाजार
प्रागाधर हए, जो ठक्कुर नाम से प्रसिद्ध थे और जिन के मन्दिर में विराजमान है'। हो सकता है कि प्रस्तुत शासन के भक्त थे। इनके 'धनवउ' टक्कुर नामका एक पुत्र शभकीति देवकीति के समकालीन हों, या कोई अन्य देव- हुग्रा, उसकी पत्नी का नाम लोनावती था, जिसका शरीर कीति के समकालीन, यह विचारणीय है।
सम्यक्त्व से विभूषित था, उससे रूपचन्द नाम का पुत्र प्रस्तुत शान्तिनाथ चरित्र १६ सन्धियो में पूर्ण हुआ
हुआ जिसने उक्त शान्तिनाथ चरित्र का निर्माण कराया है है । इसकी एकमात्र कृति नागौर के शास्त्रभडार मे सुर.
कवि ने प्रत्येक संधि के अन्त मे रूपचन्द की प्रशसा क्षित है। जो सवत् १५५१ की लिखी हुई है। इस ग्रन्थ
सूचक पाशीर्वादात्मक अनेक पद्य दिये है। उसका एक पद्य में जैनियों के १६वें तीर्थकर भगवान शान्तिनाथ पचम
पाठको की जानकारी के लिए नीचे दिया जाता है :चक्रवर्ती थे, उन्होंने षट्खण्डों को जीत कर चक्रवर्ती पद
इक्वाकूणां विशुद्धो जिनवर विभवाम्नाय वंशे समांशे, प्राप्त किया था। फिर उसका परित्याग कर दिगम्बर
तस्मादाशापरीया बहुजनमहिमा जात साल वंशे । १. ............... तपो महात्मा शुभकीतिदेव । लोलालंकार सारोद्भव विभव गणासार सत्कार लुः । एकान्तराद्युग्रतपोविघानाडातेव सन्मार्गविविधाने। शुद्धि सिद्धार्थसारा परियणगुणी रूपचन्दः सुचन्द्रः ।।
-पट्टावली शुभचन्द्रः कवि ने अन्त मे ग्रन्थ का रचनाकाल स० १४३६ तत्प? जनि विख्यातः पंचाचार पवित्रधीः ।
दिया है जैसा कि उसके निम्न पद्य से स्पष्ट है :शुभकीतिमुनिश्रेष्ठः शुभकीर्ति शुभप्रद. ॥
प्रासोद्विकमभूपतेः कलियुगे शांतोतरे संगते, -पुदर्शन चरित्र
सत्यं क्रोषननामधेय विपुले संवच्छरे संमते । २. श्री कुंदकुदस्य वभूब वशे श्री रामचन्द्रः प्रथतः प्रभाव:
दत्ते तत्र चतुर्वशे तु परमो षट्त्रिंशके स्वशिके। शिप्यस्तदीयः शुभकीर्तिनामा तपोगना वक्षसि हारभूतः ।।७।।
मासे फाल्गुणि पूर्वपक्षक वृषे सम्यक् तृतीयां तियो । प्रद्योतते सम्प्रति तस्य पट्ट विद्याप्रभावेण विशालकीतिः । शिष्यैरनेक रुपसेव्यमानएकान्त वादादिविनाशवजम् ।।
इससे स्पष्ट है कवि शुभकीर्ति १५वी शताब्दी के -धर्मशर्माभ्युदय लिपि प्र० विद्वान है। अन्य ग्रन्थभंडारों मे शान्तिनाथ चरित्र की ३. सं० १४९४ पाषाढ़ वदि २ काष्ठासंघे माथ रान्वय इस प्रति का अन्वेषण प्रावश्यक है। अन्यथा एक ही प्रति श्रीदेवकीर्ति प्रतिष्ठिता।
पर से उसका प्रकाशन किथा जाय ।