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________________ अनेकान्त तथा तीर्थकरवचनसंग्रहविशेषप्रस्तावमूलव्याकरिणौ होकर तत्त्वार्थमूत्र पर तत्वार्थ श्लोकवार्तिक की रचना की द्रव्यायिकपर्यायाथिको निश्चेतव्यो। ल० स्वो० थी। इस तत्त्वार्थ श्लोकवार्तिक मे प्रथम अध्याय के प्रतिम सिद्धसेन ने सन्मति में एक नई स्थापना और भी की सूत्र पर नयों का सुन्दर सक्षिात विवेचन है । इस विवेचन है । और वह है पर्याय और गुण मे अभेद की। अर्थात् के अन्त मे ग्रन्थकार ने लिखा है कि विस्तार से नयों का पर्याय से गुण भिन्न नही है। यह चर्चा तीसरे काण्ड मे स्वरूप जानने के लिए नयचक्र को देखना चाहिए; यह गाथा ८ से प्रारम्भ होती है। इस चर्चा का उपसहार नयचक सभवतया मल्लवादीकृत नयचक्र होना चाहिए: करते हुए प्राचार्य सिद्धसेन ने उसका प्रयोजन शिष्यो की क्योंकि उपलब्ध देवसेनकृत लघुनयचक्र और माइल्ल धवल बुद्धि का विकास बतलाया है, क्योकि जिनोपदेश मे न तो कृत नयचक्र प्रथम तो सक्षिप्त ही है, विस्तृत नहीं है, एकान्त से भेदभाव मान्य है और न एकान्त से प्रभेदवाद, इनसे तो विद्यानन्द ने ही नयो का स्वरूप अधिक स्पष्ट प्रतः उक्त चर्चा के लिए अवकाश नही है। लिखा है, दूसरे, उक्त दोनो ही ग्रन्थकार विद्यानन्द के (सन्मति ३-२५, २३) पीछे हुए है। अतः विद्यानन्द उनकी कृतियों को देखने अकलकदेव ने भी तत्त्वार्थवातिक मे पाचवें अध्याय के का उल्लेख नहीं कर सकते थे, अस्तु । इस नयचर्चा मे 'गुणपर्यायवद् द्रव्यम् ॥३७॥' सूत्र के व्याख्यान मे उक्त विद्यानन्द ने सिद्धसेन के पड्नयवाद को स्वीकार नही चर्चा को उठाकर उसका समाधान तीन प्रकार से किया किया, बल्कि उसका विरोध किया है। उनका कहना है है। प्रथम तो पागम प्रमाण देकर गुण की सत्ता सिद्ध की कि नंगमनय का अन्तर्भाव न तो संग्रह मे होता है, न है, "फिर गुण एव पर्यायः' समास करके गुण को व्यवहार में और न ऋजुमूत्रादि मे। अत: परीक्षको को पर्याय से अभिन्न बतलाया है। यही प्राचार्य सिद्धसेन की संग्रह प्रादि छ नय ही है' ऐसा नही कहना चाहिए। मान्यता है। इस पर से यह शका की गई है कि यदि संग्रहे व्यवहारे वा नान्तर्भावः समीक्ष्यते । गुण ही पर्याय है तो केवल गुणवत् द्रव्य या पर्यायवत् नंगमस्य तयोरेकवस्त्वंशप्रवणत्वतः ॥२४॥ द्रव्य कहना चाहिए था-'गुण पर्याय वद् द्रव्य' क्यो नर्जुसूत्रादिषु प्रोक्तहेतबो वेति षण्नया. । कहा? तो उत्तर दिया गया कि जनतर मत में गुणो को संग्रहादय एवेह न वाच्याः प्रपरीक्षकः ॥२५॥ द्रव्य से भिन्न माना गया है । अतः उसकी निवृत्ति के लिए -त० श्लो० वा. ६,२६६ । दोनों का ग्रहण करके यह बतलाया है कि द्रव्य के परि- यहा 'प्रपरीक्षक' शब्द सभवतया सिद्धसेन के लिए ही वर्तन को पर्याय कहते है । उसी के भेद गुण है, गुण भिन्न आया है, क्योकि परीक्षा के आधार पर उन्होंने ही षड्जातीय नहीं है। इस प्रकार इस चर्चा मे भी अकलकदेव नयवाद की स्थापना की थी। परीक्षक के साथ प्रकर्षत्व ने सिद्धसेन के मत को मान्य किया है। मतः अकलकदेव के सूचक 'प्र' उपसर्ग से भी इस बात की पुष्टि होती है, पर सिद्धसेन का प्रभाव स्पष्ट है। क्योकि सिद्धसेन साधारण परीक्षक नही थे। प्राचार्य विद्यानन्द और सिद्धसेन : इसी तरह विद्यानन्द ने पांचवे अध्याय के 'गुणपर्याय___ प्राचार्य विद्यानन्द एक तरह से अकलंक के अनुयायी वद् द्रव्यम्' इस सूत्र की व्याख्या मे गुण और पर्याय मे और टीकाकार थे। उन्होंने समन्तभद्र के प्राप्तमीमासा अभेद मानकर भी सिद्धसेनानुगामी अकलक का अनुकरण और उस पर अकलंकदेव के अष्टशती भाष्य को प्रावेष्टित नही किया, किन्तु गुण और पर्याय दोनो के ग्रहण के करके अष्टसहस्री नामक महान् ग्रन्थ की रचना की थी। प्राघार पर एक ऐसा तथ्य फलित किया जो अनेकान्ततथा जैसे न्यायदर्शन के सूत्रो पर उद्योतकर की न्यायवा- दर्शन के इतिहास में उल्लेखनीय है । उन्होंने लिखा हैतिक से प्रभावित होकर अकलंकदेव ने तत्त्वार्थसूत्र पर १. संक्षेपेण नयास्तावद् व्याख्यातास्त्र सूचिताः। तत्त्वार्थवार्तिक की रचना की थी, वैसे ही विद्यानन्द ने तद्विशेषाः प्रपञ्चेन सचिन्त्या नयचक्रतः ॥१०२॥ मीमासक कुमारिल के मीमांसा श्लोकवार्तिक से प्रभावित त. श्लो० वा. पृ० २७६
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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