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________________ व्याप्ति अथवा अविनाभाव के मूल स्थान की खोज श्री दरबारोलाल कोठिया अनुमान का सबसे अधिक महत्वपूर्ण और अनिवार्य न्यायवात्तिककारको भी न्यायसूत्रकार और न्यायभाष्यकार अङ्ग व्याप्ति है। इसके होने पर ही साधन साध्य का की तरह अविनाभाव और व्याप्ति दोनो अमान्य है। गमक होता है, उसके प्रभावमें नहीं । अतएव इसका दूसरा उल्लेख्य है कि उद्योतकर'-अविनाभाव और व्याप्ति की नाम अविनाभाव भी है। समीक्षा कर तो गये, पर स्वकीय सिद्धान्त की सिद्धि मे __ देखना है कि इन दोनो शब्दो का प्रयोग कबसे उनका उपयोग उन्होने असन्दिग्धरूपमे किया है। उनके आरम्भ हुअा है । अक्षपादके' न्यायसूत्र और वात्स्यायनके' परवर्ती वाचस्पति मिश्रने' अविनाभावको हतके पाँच न्यायभाष्यमे न व्याप्ति शब्द उपलब्ध होता है और न रूपोमे समाप्त कहकर उसके द्वारा ही समस्त हेतुरूपोका अविनाभाव । न्यायभाष्यमें इतना मिलता है कि लिङ्गीमे सग्रह किया है । पर वे भी अपने कथनको परम्परा-विरोधी सम्बन्ध होता है अथवा वे सम्बद्ध होते है । पर वह सम्बद्ध देखकर अविनाभावका परित्याग करके उद्योतकरके अभिव्याप्ति अथवा अविनाभाव है, इसका वहाँ कोई निर्देश प्रायानुसार पक्ष धर्मत्वादि पाँच हेतु रूपोको ही महत्व देते प्राप्त नही होता । गौतमके हेतु लक्षण-प्रदर्शक मूत्रोसे भी है, अविनाभाव को नही । जयन्तभट्टने अविनाभाव को केवल यही ज्ञात होता है कि हेतु वह है जो उदाहरणके स्वीकार करते हुए भी उसे धर्मत्वादि पाँच रूपोम समाप्त साधर्म्य अथवा वैधय॑से साध्यका साधन करे । तात्पर्य यह बतलाया है । और उसे व्याप्ति, नियम तथा प्रतिबन्ध कि हेतु को पक्ष में रहने के अतिरिक्त सपक्षमे विद्यमान कहा है। और विपक्षसे व्यावृत्त होना चाहिए, इतना ही अर्थ हेतु इस प्रकार वाचस्पति और जयन्तभट्ट के द्वारा जब लक्षणसूत्रोसे ध्वनित होता है, हेतु को व्याप्त (व्याप्ति स्पष्टतया अविनाभाव और व्याप्तिका प्रवेश न्यायपरम्परा विशिष्ट या अविनाभावी ) भी होना चाहिए, इसका में हो गया तो उत्तरवर्ती न्यायग्रथकारोंने उन्हे अपना उनसे कोई सकेत नही मिलता । उद्योतकरके न्यायवात्तिक लिया और उनकी व्याख्याएं प्रारम्भ कर दी । यही कारण से अविनाभाव और व्याप्ति दोनो शब्द प्राप्त होते है। है कि बौद्धताकिको द्वारा मुख्यतया प्रयुक्त अनन्तरीयक पर उन्हें उद्योतकरने पर मत के रूप में प्रस्तुत किया है (या नान्तरीयक ) तथा प्रतिबन्ध और जैन तर्कप्रथकागे तथा उनकी मीमासा भी की है। इससे प्रतीत होता है कि के द्वारा प्रधानतया प्रयोगमे आनेवाले अविनाभाव एव १ न्यायमू०१ । १ । ५,३४३५ । २. न्यायभा० १ । १ । ५, ३४, ३५ । ३. लिगलिगिनो. सम्बन्धदर्शन लिगदर्शन चाभिसम्बध्यते लिगलिगिनो सम्बद्धयोर्दर्शनेनलिंगस्मृतिरभिसम्बध्यते । -न्यायभा०१।१ । ५। ४. न्या० मू०१।१३४, ३५ । ५. अविनाभावेन प्रतिपादयतीति चेत् तन्न...। -न्यायवा० ११११५, पृ० ५० तथा ११११५, पृ० ६. न्यायवा० ११११५पृ० ४७, ४६ । ७. यद्यप्यविनाभाव पचसु चतुर्पु वा रूपेषु लिंगस्य समा प्यते इत्यविनाभावेनैव सर्वाणि लिगरूपाणि सगृह्यन्ते, तथापीह प्रसिद्धसच्छब्दाभ्यां द्वयोः सग्रहे गोवलीवदन्यायेन तत्परित्यज्य विपक्षव्यतिरेकासत्प्रतिपक्षत्वावाधित विषयत्वानि संगृह्णाति । -न्यायवा० तात्प० ११११५, पृ. १७८ । ८. एतेषु पचलक्षणेष अविनाभावः समाप्यते । -न्यायकलिका पृ०२।
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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