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व्याप्ति अथवा अविनाभाव के मूल स्थान की खोज
व्याप्ति जैसे शब्द उद्योतकरके बाद न्यायदर्शनमे समाविष्ट शुद्ध अविनाभाव नही। यही कारण है कि टिप्पणकार हो गये व उन्हें एक-दूसरे का पर्याय माना जाने लगा। ने' अविनाभाव का अर्थ 'व्याप्ति' एवं 'अव्यभिचरित जयन्तभट्टने' अविनाभाव का स्पष्टीकरण करनेके लिए सम्बन्ध' दे करके भी शकर मिश्र द्वारा किये गये अविनाव्याप्ति नियम प्रतिबन्ध साध्याविनाभावित्व इन सबको भाव के खण्डनसे सहमति प्रकट की है और "वस्तुतस्त्व उमीका पर्याय बतलाया है । वाचस्पति' कहते है कि लिग नौपाधिक सम्बन्ध एव व्याप्तिः" इस उदयनोक्त' व्याप्ति का कोई भी सम्बन्ध हो उसे स्वाभाविक एव नियत होना लक्षण को ही मान्य किया है। इससे प्रतीत होता है कि चाहिए और स्वाभाविकका अर्थ वे उपाधिरहित बतलाते अविनाभाव वैशेषिक दर्शन की भी स्वोपज्ञ एव मौलिक है। इस प्रकार का लिंग ( साधन ) ही गमक होता है मान्यता नही है । और दूसरा सम्बन्धी ( लिंगी) गम्य । तात्पर्य यह कि कुमारिलके मीमासा श्लोकवात्तिक' में व्याप्ति मौर उनका अविनाभाव या व्याप्ति शब्दो पर जोर नही है। अविनाभाव दोनो शब्द मिलते है । पर उनके पूर्व न पर उदयन, केशव मिश्र, अन्नम्भट्ट विश्वनाथ' प्रभृति जैमिनिमूत्रमे वे है और न शबरस्वामी के शाबरभाष्यमे । नैयायिकोने तो व्याप्ति शब्दको अपनाकर उसीका विशेष बौद्धतार्किक शकर स्वामीके न्यायप्रवेशमे अविनाभाव व्याख्यान किया है तथा पक्षधर्मताके साथ उसे अनुमानका और व्याप्ति दोनो शब्द नहीं है। पर उनके अर्थ का प्रमुग्य अग बतलाया है। गगेश और उनके अनुवर्ती बोधक नान्तरीयक ( अनन्तरीयक ) शब्द पाया जाता वर्द्धमान उपाध्याय, पक्षधर मिश्र, वासुदेव मिथ, रघुनाथ है। धर्मकीति 'धर्मोनर, अर्चट,' आदि बौद्ध नैयायिकोने गिगेमणि, मथुरानाथ तर्कवागीश, जगदीश तर्कालकार, इन दोनो शब्दोके अतिरिक्त उक्तार्थ प्रतिबन्ध और नान्त गदाधरभट्टाचार्य प्रादि नव्यनैयायिकोन व्याप्तिपर सर्वाधिक रीयक शब्दो का भी प्रयोग किया है। इनके पश्चात् तो चिन्तन और निबन्धन किया है । गगेशने तत्वचिन्तामणिमे उक्त शब्द बौद्ध तकंग्रथोमे बहुलतया उपलब्ध है। 'तत्र व्याप्तिविशिष्ट पक्षधर्मना ज्ञानजन्य ज्ञानमनुमिनि । तब प्रश्न है कि इन (अविनाभाव और व्याप्ति ) तत्करणमनुमानम्" शब्दो द्वारा अनुमान लक्षण प्रस्तुत करके का मूल स्थान क्या है ? अनुसन्धान करने पर ज्ञात होता ध्याप्नि' और पक्षधर्मना" दोनो अनुमानागोका नव्यपद्धति है कि प्रशस्तपाद और कुमारिलसे पूर्ववर्ती जैन ताकिक से असाधारण परिष्कार एव विवेचन किया है। समन्तभद्र द्वारा, जिनका समय विक्रम की २ री, ३ री
प्रशस्तपादभाष्यमे" भी अविनाभावका प्रयोग उपलब्ध शनी माना जाता है", अविनाभाव शब्द प्रथम प्रयुक्त हुमा होता है। उममे अविनाभूत लिगको लिगीका गमक बत- है। उन्होने अस्तित्व को नास्तित्व का और नास्तित्व को लाया गया है। पर वह वहाँ त्रिलक्षण रूप ही अभिप्रेत है,
१ वही, टिप्प० पृ. १०३ । १. वही १० २।
२ वही, टिप० १०३। ३. किरणा० पृ. २. न्यायवा० ता. टी. ११२५, पृ० १६५ ।
४ मी० श्लो0 अनु०ख० श्लो० ४,१२,४३ तथा १६१ । ३. किरणा० पृ० २६०, २६४, २६५-३०२।
५. न्यायप्र० पृ० ४, ५। ४. तर्कभा० पृ० ७२, ७८, ८२, ८३, ८८ ।
६. प्रमाणवा० १।३, १।३२ तथा न्यायबि० पृ. ३०, ६३; ५. तर्कस० पृ० ५२-५७ ।
हेतबि० पृ० ५४ । ६. सिद्धान्तमु० का०६८, पृ० ५१-५५ ।
७. न्यायवि० टी० पृ. ३० । ७. इनके ग्रन्थोद्धरण विस्तारभय से यहां अप्रस्तुत है। ८. हेतुवि० टी० पृ. ७, ८, १०, ११ आदि । ८. तत्त्वचि० अनु० खण्ड पृ० १३ ।
& 'स्वामी समन्तभद्र' १९६, श्रीजुगलकिशोर मुख्तार । ६. वही, पृ. ७७-५२,८६-८६, १७१-२०८, २०६-४३२। १० अस्तित्व प्रतिपध्येना विन.भाव्यकर्मिणा । १०. वही, अनु०ख० पृ. ६२३-६३१ ।
नास्तित्व प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकर्धामणा। ११-१२. प्र० भा० पृ. १०३ तथा १०० ।
-प्राप्तमी० का०१७, १८ ।