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________________ अनेकान्त. का भी कथन किया है । त्रिविक्रम ने 'झडादि' के अन्तर्गत जिन देशज शब्दों की गणना की है, वे प्रस्तुत व्याकरण में किसी एक गण में पठित नहीं है। इनका उल्लेख यत्रतत्र फुटकर रूप में हुआ है। शुभचन्द्र ने उदाहरणों में 'महुरव्व पाडलिपुत्ते पासाया' (२०१११२), पाणिनीया-पाणिनेः इमे शिष्याः (२।१।१६), मइ अयरेका-मदीयपक्षः (२११११६), गणहुतं (२।१।१६), पियहुत्त पस्सइ (२।१।१६), अवरिल्लो (२।१।२१), मयल्लिपुत्ती (२।१।२६), तिस्सा मुहस्स भरिमो (२।२२३६), पिउहर माउसिया माउमडलं (१२२।८६), माहिवाप्रो (१।२।१२१); पयागजल (१।३।२); गुडो, गुलो (१।६।१६); टगरो (शृगरहितोवृषभः), दूबरो (श्मश्रुरहित पुरुषोवा १-३१३३), मट्ट (स्वीकरण), थाणू (त्यक्तवृत्त १।४।५), सप्फ (वालतृण) प्रभृति ऐसे पद है, जिनमे सस्कृत का इतिहास निहित है। संक्षेप में इस ब्यारण में निम्नलिखित विशेषताएँ परिलक्षित होती हैं : १ अनुशासन में लाघव प्रक्रिया का प्रयोग । २ प्रायः सूत्रों द्वारा ही नियमों का स्पष्टीकरण । ३ संस्कृत के पूरे-पूरे शब्दों के स्थान पर प्राकृत के पूरे शब्दों के प्रादेश का नियमन । ४ कृत और तद्धित प्रत्ययों का विस्तारपूर्वक निर्देश। ५ प्रवर्णान्त, इवर्णान्त, उवर्णान्त, ऋवर्णान्त और व्यञ्जनान्त शब्दों की रूपावलि का विस्तारपूर्वक उल्लेख। ६ सामान्य प्राकृत का विस्तारपूर्वक निरूपण । ७ देशज शब्दों का यथास्थान निर्देश । ८ मागधी, पैशाची और चूलिका पैशाची की शब्दावलि का कथन । वर्णविकार का सोदाहरण निरूपण । १० वर्ण व्यत्यय, प्रादेश, लोप, द्वित्व प्रभृतिका कथन । ११ अन्य वैयाकरण के समान य श्रुति का निरूपण । -:०: बिहारी सतसई की एक अज्ञात जैन भाषा टीका श्री प्रगरचन्द नाहटा प्राकृत और सस्कृत सप्तशती की परपरा हिन्दी, विजयगच्छीय कवि मानसिंह ने हिन्दी गद्य में टीका लिख । गजस्थानी, गुजराती में सतसई के रूप में खूब विकसित और नागोरी लोंकागच्छ के वीरचन्द्र शिष्य परमानन्द ने हुई । सस्कृत, हिन्दी, राजस्थानी गुजराती चारो भाषामो सवत् १८६० बीकानेर में संस्कृत में टीका बनाई। इस को प्राप्त सतसइयों की खोज इधर ५-७ वर्षों में मैने टीका का विवरण मैने अपने सम्पादित 'राजस्थान में विशेष प्रयत्नपूर्वक की और प्राप्त जानकारी सप्तसिध्, हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज द्वितीय भाग' मे गजस्थान भारती आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित की जा सन १९४७ में प्रकाशित कर दिया था। अभी रूपनगर चुकी है। दिल्लो के श्रीवल्लभ स्मारक प्राच्य जन ग्रंथ भडार मे एक हिन्दी सतसइयों में सर्वाधिक प्रसिद्धि विहारी सतसई और जैन टीका प्राप्त हुई है। जिसका संक्षिप्त विवरण को मिली। इस सतसई पर संस्कृत और हिन्दी गद्य-पद्य इस लेख में दिया जा रहा है। में जितनी टीकायें लिखी गई हैं उतनी और किसी भी बिहारी सतसई की यह टीका पडित भोजसागर ने सतसई की नही, हिन्दी के किसी भी काव्य पर नही संवत् १७६३ मे बनाई है। जिसकी एकमात्र प्रति सवत् लिखी गई है । इन टीकामो मे अब तक दो जैन विद्वानों १८७८ की लिखी हुई उक्त प्रथ भडार में प्राप्त हुई है । को टीकायें ही प्राप्त थी जिनमे से १८वी शताब्दी के ४६ पत्रों की इस प्रति में मूल बिहारी सतसई मोटे अक्षरों
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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