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बिहारी सतसई की एक अज्ञात जैन भाषा टीका
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में लिखी हुई है। मूल पाठ के ऊपर संक्षिप्त अर्थ रूप बडल नम्बर ५४७, ग्रन्थ नम्बर x/६१, पत्र ४६, टब्बा लिखा गया है। प्रति अंचनगच्छ के खुस्यालसागर प्रति पृष्ठ पक्ति १४, पत्रों का साईज ११४४।।। इंच । विवुधसागर की लिखी हुई है। टीकाकार भोजसागर ने
अन्त-यह बिहारीदास कृत भाषा को अर्थ कछुक अपने गच्छ, गुरू परम्परा आदि का परिचय नही दिया
अपनी मति करी बनायो पडित भोजसागर ने । सुसक नर पर सम्भव है अचलगच्छ का ही हो। सवत् १७६३ के रसिक जन के प्राणंद के हेतू हवी। स० १७६३ काती कार्तिक सुदि शनिवार को सूरत बदर में अल्पमति
सुदी ८ शनीवार के दिन पूरो भयो। ५० श्री रूपविजय मनुष्यों के समझने के लिए यह बनाई है। जैन विद्वानों
जी के कहये ते कह्यो हई। श्री अचलगच्छे । प० मया ने साहित्य निर्माण और सरक्षण मे सदा उदार बुद्धि सागर जी शि० ॥ वेलसागर जी शि० ॥ रत्नसागर रखी है। इसी का परिणाम है कि जैन ग्रन्थ भडारो मे जी शि० खस्याल सागरे लखितं । ऽवधि विवुधेऽर्थः ।। विविध विषयक हजारो जनेतर रचनाये सुरक्षित है। सकवि बिहारीदास को वचन अगाधि प्ररथ । इतना ही नही उन्होने जैनेतर ग्रन्थो का स्वय गम्भीर
अलपमति नर समुझव कौन भांति समरथ ।। अध्ययन किया और दूसरो की सुविधा के लिए उन ग्रन्थों
तब विचार ऐसो कियो भोज पयोनिधि जान । पर सस्कृत एव लोक भाषा मे टीकाएँ बनाई। अब से
मंद मति उपकार हित, कछु इक करघो वखान ॥२॥ ३०-३५ वर्ष पहले मैने जनेतर ग्रन्थो की जैन टीकाग्रो
सत्रह से तेरानवे, सुदि कातिक शनिवार । सम्बन्धी काफी खोज की थी और उनका विवरण भारतीय
सुरती बदर में कियो, रूप भूप उपगार ॥३॥ विद्या नामक शोध पत्रिका के २-३ अको में प्रकाशित ऊंच पने मन्दिर अधिक, तेज तरुनि भुवि धीर । कराया था।
सुकवि विहारी उदधि गुरु, साहस विक्रमवीर ॥४॥ अब भोजसागर रचित बिहारी सतसई की टीका का मूल प्रति के लिपिकार मुनि बिबुध सागर ने लिपि सक्षिप्त विवरण दिया जा रहा है। इसकी और किसी की है और अर्थ की लिपि मुनि खस्यालसागर ने की है। भडार में कोई प्रति प्राप्त नहीं हुई। इसलिए उपरोक्त इति श्री बिहारीदास कृत सतसई सपूर्ण । श्री अंचल ज्ञान भडार के व्यवस्थापक प. हीरालाल दुगड़ से सक्षिप्त गच्छे मुनी कपूर सागर जी तत् सीस्य वीबूध सागरेण विवरण मगाकर नीचे दिया जा रहा है
लिखित । आत्मार्थ ।।
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संसार की स्थिति
कविवर भूधरदास वे कोई प्रजब तमासा, देख्या बीच जहान । वे जोर तमासा सुपने का सा ॥टेक।।
एकों के घर मगल गावें, पूगी मन की प्राशा । एक वियोग भरे बहु रोवै, भरि भरि नैन निरासा ।। वे कोई० ॥१ तेज तुरगनि पर चढ़ि चलते, पहिरें मलमल खासा। रक भए नागे अति डोलं, ना कोई देय दिलासा ॥ वे कोई०२ तरके राज तखत पर बैठा, था खुश वक्त खलासा । ठीक दुपहरी मुद्दत पाई, जगल कोना वासा ॥ वे कोई० ॥३ तन धन अधिर निहायत जग में, पानी मांहि पतासा । भूधर इनका गरब कर जे, फिट तिनका जनमासा ॥ वे कोई० ॥४॥