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________________ वर्शनोपयोग व ज्ञानोपयोग : एक तुलनात्मक अध्ययन १२७ प्रा. बोरसेन कुन्दकुन्दाचार्य के मत से सहमत नहीं आगे फिर कहा गया है कि केवली भगवान् प्रात्मप्राचार्य कुन्दकुन्द विरचित नियमसार एक प्राध्या म्वरूप को देखते है लोक-अलोक को वे नहीं देखते है, त्मिक ग्रन्थ है। उसके शुद्धोपयोगाधिकार में केवली के इस प्रकार यदि कोई कहता है तो उसे क्या दूषण हो ज्ञान व दर्शन उपयोगो के विषय में अच्छा विचार किया सकता है । इसके उनर में यह कहा है कि मूर्त-अमूत द्रव्य गया है। वहा सर्वप्रथम यह कहा गया है कि केवली तथा चेतन व अचेतन म्व एव अन्य सभी को देखने वाले भगवान् व्यवहार नय से सब को जानते देखते है और कवली का ज्ञान प्रत्यक्ष व अतीन्द्रिय है, यह वस्तुस्थिति केवलज्ञानी नियम से---निश्चय से-आत्मा को जानते देखते है। इसके विपरीत जो नाना गुणों और पर्यायों से सयुक्त है। इसका अभिप्राय यही है कि जिस प्रकार केवली का पूर्वाक्त समस्त द्रव्य को यथार्थ नही देखता है उसकी दष्टि ज्ञान व्यवहार नय से समस्त पदार्थों को विषय करता है (दर्शन ) का परोक्षता का प्रसग प्राप्त होगा। उसी प्रकार उनका दर्शन भी व्यवहार नय से समस्त इसी प्रकार जो यह कहना है कि केवली भगवान् पदार्थो को विषय करता है तथा निश्चय से जैसे उनका लोक-अलोक को जानते है, आत्मा का नही जानते है, ज्ञान आत्मा को जानता है वैसे ही उनका दर्शन भी उसी उसके इस कथन को दूषित करते हए कहा गया है कि आत्मा को देखता है। ज्ञान जीवका स्वरूप है, टमनिये प्रात्मा अपने को जानता इसको स्पष्ट करते हुए आगे और भी शका-समाधान है। यदि ज्ञानमय प्रात्मा अपने को नहीं जानता है तो के रूप में कहा गया है कि ज्ञान परप्रकाशक और दर्शन वह ज्ञान प्रात्मा से भिन्न ठहरेगा। इमलिये नि मन्देह आत्मप्रकाशक ही है। इस प्रकार प्रात्मा स्व-परप्रकाशक मात्मा को ज्ञान और ज्ञान को प्रात्मा समझना चाहिये । है, ऐसा यदि कोई मानता है तो क्या हानि हो सकती इस प्रकार रन पर प्रकाशक जैसे ज्ञान है वैसे ही दर्शन भी है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि यदि ज्ञान को पर- स्व-परप्रकाशक है। प्रकाशक माना जाता है तो ज्ञान से दर्शन को भिन्न मानना पडेगा, जिसका अभिप्राय होगा कि दर्शन परद्रव्यगत नहीं अप्पा परप्पयासो तइया अप्पेण दसण भिण्ण । है.-प्रात्मगत ही है। तब ऐसी अवस्था म प्रात्मा के ज्ञान ण हवदि परदव्वगो दमणमिदि वण्णिद तम्हा ।। से रहित हो जाने का प्रमग प्राप्त होता है। इसी प्रकार णाण परप्पयाम ववहारणएण दमण तम्हा । आत्मा के परप्रकाशक मानने में भी यही आपत्ति बनी ग्रापा परप्पयासो ववहारणएण दसण नम्हा ॥ रहेगी। इससे वस्तुस्थिति यह ममझना चाहिये कि ज्ञान णाण अप्पपयास णिच्छयणएण दसण तम्हा। और प्रात्मा जो परप्रकाशक है वे व्यहार नय से हैं । इसी अप्पा अप्पपयामो णिच्छयणएण दसण तम्हा ।। लिये दर्शन को भी व्यवहार नय से परप्रकाशक जानना नि. सा. १६०-६४. चाहिये । वही ज्ञान और प्रात्मा दोनो निश्चय नय से अपसम्व पच्छदि लोयालोप ण केवली भगव । प्रात्मप्रकाशक है, इसीलिये दर्शन भी आत्मप्रकाशक है। जइ कोइ भणइ एव तस्स य कि दूसण होइ ।। १ जाणदि पम्सदि मध्व ववहारणएण केवली भयव । मुनममुत्त दव्व चेयणमियर सग च सव्व च । केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाण ।। पच्छतम्स दुणाण पच्चक्खर्माणदिय होइ ।। नि. मा १५८ पुव्वत्तसयलदव्व णाणागुण-पज्नएण मजुनं । णाण परप्पयाम दिट्टी अप्पप्पयामया चेव ।। जो ण य पच्छइ मम्म परोक्वदिट्टी हवे तम्स ।। अप्पा म-परपयासो होदि त्ति हि मण्णसे जदि हि ॥ नि. सा. १६५-६७. णाण परप्पयासं तइया णाणेण दसण भिण्ण । ४ लोयालोय जाणइ अप्पाण व केवली भगव । ण हवदि परदव्वगयं दंसणमिदि वण्णिद तम्हा ॥ जइ कोइ भणइ एव तस्स य कि दूसण होइ ।
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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