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अनेकान्त
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है (पृ. ११६-२०) स्वरूप जैसा कुन्दकुन्दाचार्य को अभीष्ट रहा है वैसा वह प्राचार्य वीरसेन प्रात्मविषयक उपयोग को दर्शन और प्राचार्य वीरसेन स्वामी को अभीष्ट नही रहा । बाह्यार्थविषयक उपयोग को जान मानते है। विभिन्न
उपसंहार लक्षणो के द्वारा वे इसी बात को पुष्ट करते है । जैसे- पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक है। उसके ये दोनों धर्म सामान्य विशेषात्मक बाह्य अर्थ के ग्रहण का नाम ज्ञान और ।
कथचित् तादात्म्यस्वरूप है-वे न तो सर्वथा भिन्न ही है तदात्मक-सामान्य-विशेषात्मक स्वरूप ( प्रात्मरूप )
और न सर्वथा अभिन्न ही है । उनमें सामान्य धर्म को ग्रहण के ग्रहण का नाम दर्शन है'। अथवा, पालोकनवृत्तिका
करने वाला दर्शन और विशेष धर्म को ग्रहण करने वाला नाम दर्शन है । 'पालोकते इति आलोकनम्' इम निरुक्ति
ज्ञान है। के अनुसार पालोकन का अर्थ वे प्रात्मा करते है,तदनुसार
दर्शन निगकार ( निर्विकल्पक ) और ज्ञान साकार पालोकन की वृत्ति (व्यापार) को-स्व के सवेदन
(सविकल्पक ) है। को-दर्शन जानना चाहिये। अथवा, प्रकाशवृत्तिका __छद्मस्थ के पूर्व मे दर्शन और तत्पश्चात् ज्ञान होता नाम दर्शन है। यहा वे प्रकाश का अर्थ ज्ञान लेते हैं, है-बिना दर्शन के उसके ज्ञान नही होता । परन्तु केवली इस प्रकाश के लिये जो प्रात्मा की प्रवृत्ति होती है वह के वे दोनों सूर्य के प्रकाश और प्रातप के समान एक साथ दर्शन कहलाता है । अभिप्राय यह है कि विषय (रसादि)।
होते है । इसका कारण यह है कि केवली के ज्ञान का और विषयी (इन्द्रियो) के सपात-ज्ञानोत्पत्ति की पूर्वा- प्रतिवन्धक ज्ञानावरण और दर्शन का प्रतिबन्धक दर्शनावरण वस्था-को दर्शन कहा जाता है (घवला पु०१३, पृ० दोनों युगपत क्षयको प्राप्त हो चुके है एवं भविष्य में २१६ )।
उनके उदय की सम्भावना भी नहीं रही। इस प्रकार वीरमेनाचार्य ने धवला मे अनेक स्थानों
केवली सबको जानते देखते है, यह व्यवहार है। पर दर्शन के विषय में विचार किया है तथा आवश्यकता
वास्तव में तो वे प्रात्मा को ही जानते देखते है। नुमार समतितर्क प्रादि पूर्व ग्रन्थो के वाक्यो को भी उद्धृत
यथार्थ मे प्रात्मा है सो ज्ञान है और ज्ञान है सो किया है। पर आश्चर्य की बात यह है कि उपर्युक्त नियमसार के उनके समक्ष रहते हुए भी उन्होने न तो उसकी
आत्मा है-दोनो मे कोई भेद नही है । अत: जिस प्रकार किसी गाथा को उद्धृत किया है और न वहा प्ररूपित
ज्ञान स्व-परप्रकाशक है उमी प्रकार उससे कथचित् अभिन्न
दर्शन को भी स्व-परप्रकाशक समझना चाहिये । दर्शन के सम्बन्ध में भी कुछ विचार प्रगट किया है । इससे
__दर्शन के लिये दीपक और ज्ञान के लिये दर्पण का यही समझा जा सकता है कि दर्शन का स्व-परप्रकाशकत्व
दृष्टान्त घटित हो सकता है-दीपक पदार्थ के प्राकार स्वरूप ( १७० ), अथवा व्यवहार नय से परप्रकाशकन्व और निश्चय नय से प्रात्मप्रकाशकत्व (१६३-६४ )
को न ग्रहण कर सामान्य रूप से सीमित प्रदेश में स्थित
मभी पदार्थों को प्रकाशित करता है, पर दर्पण सामने णाण जीवसरूप तम्हा जाणेद अप्पग अप्पा । स्थित पदार्थ के आकार को ग्रहण कर विशेष रूप से उसे अप्पाण ण वि जाणदि अप्पादो होदि विदिरिन ।। प्रकाशित करता है। अपाण विणु णाण णाण विणु अप्पगो ण सदेहो। हम चलते-फिरने व उठते-बैठते अनेक वस्तुप्रो को तम्हा स-परपयास णाण तह दमण होदि ।। देखते है, पर प्रयोजन न होने से उनकी विशेषता का
नि. सा. १६८-७०. अनुभव नहीं करते, प्रयोजन के वश उनकी विशेषता को सामान्य-विशेषात्मकबाह्यार्थग्रहण ज्ञानम्, तदात्मक. भी पृथक्-पृथक जानते है । इसी प्रकार निर्विकल्प सामान्य
स्वरूपग्रहणं दर्शनम् । धवला पु १, पृ १४७. प्रतिभास को दर्शन और विशेष प्रतिभास को ज्ञान जानना २ धवला पु. १, पृ. १४८-४६
चाहिये।