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________________ कवि छीहल परमानन्द शास्त्रो नाल्हिग वश के विद्वान कवि छीहल का जन्म अग्र- मक्खियो का एक छत्ता लगा हुआ था। हाथों ने उसे वाल कुल में हुआ था। आपके पिता का नाम शाह नाथू हिला दिया, जिससे अगणित मधु-मक्खिया उड़ने लगी, या नाथूराम था। कवि ने अपनी गुरु परम्परा और और मधु को एक-एक विन्दु उस पथिक के मुह में पड़ने जीवन घटनाओं का कोई उल्लेख नही किया इसलिये उनके लगी। इसमे कूप संसार है, पथी जीव है, सर्प गति है, सम्बन्ध मे यहा लिखना कुछ शक्य नहीं है । आप की इस अजगर निगोद है, हाथी अज्ञान है और मधु विन्दु विषयसमय तक ५ पाच रचनाएँ प्रकाश मे पाई है-पच सहेली सुख है। कवि कहता है कि-'यह संसार का व्यवहार गीत, पन्थीगीत, उदरगीत, पचेन्द्रिय वेलि और बावनी है। अतः हे गवार | त चेत, जो मोह निद्रा में सोते है पादि है । पंच सहेलीगीत एक शृगार परक रचना है जो वे अधिक असावधान है। इन्द्रिय रस मे मग्न हो परमस० १५७५ मे फाल्गुन सुदि १५ के दिन रची गई थी। ब्रह्म को भला दिया है, इस कारण नेरा नर जन्म व्यर्थ रचना मे पच सहेलियों का वर्णन है । वर्णन सहज और है। कबि छीहल कहते है कि हे पात्मन् ! अब तू जिनेद्र स्वाभाविक है। पच सहेलियो का प्रश्नोत्तररूप में अच्छा प्रतिपादित धर्म का अवलम्बन कर कर्म बन्धन से छूट सकलन हुअा है। सकता है---जैसा कि उक्तगीत के निम्नपद्य से प्रकट है: पन्थीगीत-मसारिक दुख का एक पौगणिका उदा संसार को यह विवहारो चित चेतहुरे गवारो हरण है। इसे रूपक काव्य कहा जा सकता है। यह मोह निद्रा में जे जन सूता ते प्राणी प्रति बे गूता पौराणिक दृष्टान्त महाभारत और जैन ग्रथो में पाया प्राणी बे गुता बहुत ते जिन परमब्रह्म विसारियो जाता है वहा इसे ससार वृक्ष के नाम से उल्लेखित किया भ्रम भूलि इन्द्रिय तनौ रस नर जनम वृथा गवांइयो गया है.-- बहुत काल नाना दुःख दोरघ सहया छोहल कहे करि धर्म एक पथिक चलते-चलते रास्ता भूल गया और सिहो जिन भाषित जगतिस्यौं त्यों मक्ति पद लो के वन मे पहुंच गया। वहा रास्ता भूल जाने से वह इधरउधर भटकने लगा। उसी समय उसे सामने एक मदोन्मत पचेन्द्रियवेलि-यह चार पद्यो की एक लधु रचना है. हाथी प्राता हुआ दिखाई दिया, उसका रूप अत्यन्त गद्र जिसमे अत्म सम्बोधन का उपदेश निहित है। अपने था और वह क्रोधवश अपने भुजदण्ड को हिलाता हुआ पा प्राराध्यदेव को घट में स्थापित करने के लिये हदय की रहा था। पथिक उसे देख भयभीत होकर भागने लगा। पवित्रता आवश्यकता है, यदि घट अपवित्र है, तो जप, तप और हाथी उसके पीछे पीछे चला, वहा घास-फम से ढका तीर्थयात्रादि मब व्यर्थ है अत घट की प्रान्तरिक शुद्धि को हुअा एक अन्धा कुया था। पन्थी को वह न दिखा, और लक्ष्य में रखकर भव -ममुद्र के तिग जा सकता है । वह उसमे गिर गया, उमने वृक्ष की एक टहनी पकड ली और उसके सहारे लटकता हया दुःख भोगने लगा । उस चाथा कृात बावना है । यह पगल चौथी कृति बाबनी है। यह पिगल भाषा की एक कुए के किनारे पर हाथी खड़ा था, उस कुवे में चारो छोटी सी रचना है जो अब तक अप्रकाशित है । इसमे दिशाग्रो मे चार सर्प और बीच में एक अजगर मुहवाए ५३ कवित्त या छप्यय है। कवि ने अन्तिम पद्य मे अपना पडा था । उस कुए के पास एक वट वक्ष था, उसमे मधु परिचय दिया है। और बावनी का रचना काल वि० स०
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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