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________________ अनेकान्त १५८४ कार्तिक शुक्ला अष्टमी गुरुवार बतलाया है। यह छोहल्ल द्विरद तेही समय सर सपत्ती दईव वसि । नीति विषयक एक मुक्तक रचना है । इसका प्रत्येक छन्द अलि कमल पत्र पर इन सहित निमिष मध्य सो गयौ प्रसि ॥ काव्य की दृष्टि से उत्तम कोटि का है। रचना भावपूर्ण -बावनी और सुन्दर है। इस प्रकार की नीति-परक रचना बहुत निम्न सस्कृत सुभाषित पद्य का अनुवाद उक्तपद्य में कवि कम देखने में आती है। रचना चूकि १६वी शताब्दी के हर ने किस सफलता के साथ करने का उपक्रम किया है। अन्तिम चरण की है प्रथगत नीति पद्य बड़े ही मार्मिक रात्रि गमिष्यति भविष्यति सुप्रभात और दृष्टान्तके साथ वस्तुतत्त्व का ज्ञापन कराते है । रचना भावमिकी पर संस्कृत साहित्य के सुभाषतो का प्राधार रहा है । कवि इत्थं विचिन्तयति कोष गते द्विरेफे। ने सस्कृत के अनेक नीति-तथा सुभाषित-विषयक पद्यो का हा हन्त-हन्त नलिनी गज उज्जहार ॥ -सुभाषित पद्य सार लेकर उनका भाव अकित किया होगा। प्रायः प्राचीन भारतीय रचनाओं में पूर्वाधार का होना उनकी प्रामाणि इम पद्य का अनुवाद और भी अनेक कवियों ने किया कता का सबूत है। रचना के दो ऐसे उदाहरण दिये जाते है जो संस्कृत के पद्यो के आधार को प्रामाणित करते है। २३ वे पद्य मे कवि ने बतलाया है कि राज द्वार पर घड़ी-घडी में घटियाल बजती है, वह पुकार-पुकार कर चंत्रमास वनराइ फल फुल्ले तरुवर सह तो क्या दोष वसंत पत्र हो करीर नहें। मानवो से मानो कह रही है कि यह प्रायु क्षण-क्षण में दिवस उलूक जुधेष तनो रवि को कोऊ अवगुन । छीजती जा रही है सपत्ति श्वास और शरीरके समान अनिचातक नीर न ग्रहै नत्थि दूषन वरषा घन ॥ श्चल है-विनष्ट होने वाली है। वह वृक्ष के पत्तो पर दु.ख सुख दईव जो निमयो लिपिललाट सोई लहै पडी प्रोस के विन्दु के समान चचल है । ऐसा जान कर वकवाद न करि रे मूढ नर कर्म दोष छोहल कहै ॥२५ मूढ मानव तू चित्त में चेत, कवि छीहल कहता है कि इस पद्य का भाव भर्तृहरि की नीति शतक के इस उच्च हाथो से दान दीजिये अन्यथा वह विनष्ट हो जायगी। पद्य में लक्षित है: यथा-धरी-घरी नृप द्वार एह धरियावल बज्ज पत्रं नव यदा करीर विटपे दोषो वसन्तस्य कि कहे पुकारि-पुकारि पाउ खन ही खन छिज्ज। नो लूको प्यबलोकते यदि दिवा सूर्यस्य किं दूषणम् । संपति स्वांस शरीर सदा नर नाही निसचल धारा नव पतन्ति चातक मुखे मेघस्य किं दूषण पर इनि पत्र पतंत बूंद जल लव जिम चंचल ॥ यत्पूर्व विधिना ललाट लिखितं तन्माजितुंकः क्षमः । यह जानि जगत जातो सकल चित चेतौ रे मूट नर । -नीति शतक ......सो इव छोहल कहि दिज्ज दानहि उच्च कर ॥२३ अमर इक्कि निसि समय परपी पंकज के संपुटि एक दूसरे पद्य में कवि कहता है-किमन मई मं प्रास रयान खिन मध्य जाइ घटि । ज्ञानवन्त कुलीन पुरुष यद्यपि धन से हीन है फिर भी करि हैं जलज विकास सूर परभात उदय जब वह विषमावस्था मे भी कभी हीन बचन नही कहता । मधुकर मन चितवं मुकत ह्व है बंधन तब ।। दुःख के अधिक सताने पर भी वह नीच कर्म नही करता। १ चौरासी अग्गला सय जु पनरह संवच्छा। वह मरना पसन्द करता है किन्तु अपनी नाक नीची नही सुकल पच्छ प्रष्टमी मास कातिग गुरु वासर । करता कवि छीहल कहते हैं कि दम्पति (सिंह ) सदा हृदय बुद्धिउ धनी नाम श्री गुरु को लीनौ मृग मांस खाता है किन्तु बहुत दिनों तक लंघन करने पर सारव तने पसाय कवित संपूरन कोनो ॥ भी कभी घास नहीं खाता। नातिग बंस नायू सुतन अगरवाल कुल प्रगट रवि ज्ञानवंत सुकुलीन पुरुष जो है धन होना बावनी बसुषा विस्तरी कहि सेवग छोहल कवि ॥५३ विषम अवस्था पर वयन नहि भाषे रीना। वह
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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