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________________ कुलपाक के माणिक स्वामी पं० के० भुजबलो शास्त्री, सिद्धान्ताचार्य 'अनेकान्त' वर्ष २१ किरण १(अप्रैल, १९६८) मे कुल- कारजा के भट्टारक जिनसेन का 'मान्यता विवरण' इन पाक के माणिक स्वामी' शीर्षक से डा. विद्याधर जोहरा- कृतियो के आधार पर कुलपाक के माणिक स्वामी पर पुरकर का एक लेख प्रकाशित हुआ है। उस लेख में मान्य प्रकाश डाला है। लेखक ने अनुमानित तेरहवीं शताब्दी के विद्वान् उदयकीति विद्याधर जी का कहना है कि इस समय क्षेत्र पूर्णत: की अपभ्रंश रचना 'तीर्थ वंदना,' चौदहवी शताब्दी के नाम पदाधिकार में है। पर उपर्यक्त कतियों लेखक जिनप्रभसूरिका 'विविध तीर्थ कल्प, पंद्रह्वीं शताब्दी के वर्णनों से स्पष्ट है कि मध्य युगमे दिगम्बर भी यात्रा को के मराठा लेखक गुणकीति का 'धर्मामृत,' पंद्रहवी या यहा पर बराबर जाते रहे है । जहाँ के मंदिर के सभागृह सोलहवी शताब्दी के लेखक सिंहनन्दि का 'माणिक स्वामी में मुख्य मूर्ति माणिक स्वामी के अतिरिक्त, अन्य बारह बिनती,' सोलहवी शताब्दी के गुजराती लेखक सुमतिसागर भव्य अर्ध पद्मासन मूर्तियां भी है और उनकी शिल्प शैली की 'तीर्थजयमाला,' सत्रहवी शताब्दी के लेखक शीलविजय दक्षिणी भारत के श्रवण बेलगोल कारकल, मूडबिद्री प्रादि की 'तीर्थमाला, सत्रहवी शताब्दी के गुजराती लेखक सुमति स्थानों की मूर्तियो के समान ही है। साथ ही साथ लेखक सागर की 'तीर्थ जयमाला,' सत्रहवी शताब्दी के गुजराती यह भी कहते है कि मूर्तियो के पाद पीठो पर प्रतिष्ठा लेखक ज्ञानसागर की 'तीर्थ वदना,' सत्रहवी शताब्दी के सम्बन्धी लेख अवश्य ही रहे होगे। पर इनके पैरों तक ही जयसागर की 'तीर्थ जयमाला' और उसी शताब्दी के सीमेन्ट प्लास्टर किये जाने के कारण आज पाद पीठ नष्ट निद्य कर्म नहि कर रोर जो अधिक सतावै । प्राय. हो गये है। वर मदिवो अंगव निमिष सो नाक न नावं ॥ अब कुलपाकक माणिक स्वामी के सम्बन्ध में मुझे भी छीहल्ल कहै मृगपति सदा मृग प्रामिष भक्खन करें। कुछ कहना है । वह निम्न प्रकार है : कुलपाक या कोल्लि. जो बहुत दिवसलंघन पर तऊ न केहरि तण चर ।।२४ पाक से सम्बन्ध रखने वाली एक रचना कन्नड भाषा मे ३५ वें पद्य में बताया है कि हे मूढ नर । थोड़े-थोडे भी है । इसके रचयिता जैन कवि नागव है । इनका समय समय कुछ सुकृत ( पुण्य ) भी करना चाहिये और जब ई० सन् १७०० वी शताब्दी है। कवि नागव की इस रचना तक शरीर मे जोस है विनय सहित सारे दिन अपने हाथ का नाम 'माणिकचरिते है । इस कथा का सम्बन्ध रामायण से धन को देना चाहिये । मरने के बाद लक्ष्मी साथ नही से जोडा गया है। बहुत कुछ सभव है रामायण और जाती। कवि छीहल कहते है कि देखो राजा बीसल ने महाभारत जनप्रिय महाकाव्य होने के कारण ऐसा किया उन्नीस करोड द्रव्य सचित किया, किन्तु भोग कर उसका गया हो। वस्तुत यह एक ऐतिहासिक घटना है । कथा लाभ नही उठाया । अन्त में वह उसे छोड कर चला गया। का मार इस प्रकार है । इस तरह यह रचना बडी ही सुन्दर और भावपूर्ण है। एक दिन देवेन्द्र रजतगिरि के रत्न खचित जिन मदिरों और प्रकाशित करने के योग्य है। का दर्शन कर पुष्पक विमान पर लौट रहा था । अकस्मात् पांचवीं रचना सामने न होने से उसका परिचय यहा पुप्पक विमान वीच में रुक गया । तब देवेन्द्र ने नीचे देखा। नही दिया जा सका । कवि की अन्य रचनामों का अन्वेषण नीचे लंकाधीश रावण की पत्नी मंदोदरी लका नगर के होना चाहिए। बाहर, शातीश्वर के मदिर मे बड़ी भक्ति से पूजा कर रही
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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