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पिण्डशुद्धिके अन्तर्गत उद्दिष्ट पाहार पर विचार
तर रहता है । यही सोचकर विवेकशील मनस्वी साधु इस करते हुए उसे सहन करना चाहिए कि वह सच ही तो चिरपरिचित शरीरमें भी निःस्पृह होकर निरन्तर कष्टप्रद कह रहा है, इसमें उसका क्या दोष है ? और यदि इसके प्रारम्भों-पातापनयोग प्रादि-के साथ काल-यापन विपरीत दोषों के न रहते हुए भी कोई शाप देता है करते हैं।
तो वह मिथ्या कह रहा है-उससे उसी की हानि हो जो एकाकीपन को साम्राज्य के समान, शरीरकी सकती है, मेरी कुछ हानि होने वाली नही है-ऐसा च्युति (मृत्यु) को अभीष्ट प्राप्तिके सदृश, दुष्ट कर्मोस विचार करते हुए उसको सह लेना चाहिए। निर्मित दुरवस्था को दुख, सांसारिक सुखके परित्याग को अब रही उद्दिष्ट भोजन की बात, सो इस विषयमें सुख और प्राण निर्गमनको सब कुछ देकर किये जाने वाले मेरा अभिमत यह है कि जैसा कि माप ऊपर प्रागमिक महान् उत्सव जैसा समझते हैं। ऐसे महामना महर्षियोंके कथन को देख चुके हैं तदनुसार वर्तमानमें भाहार तो लिए अनुकूल-प्रतिकूल सभी कुछ सुखरूप ही प्रतिभासित प्रायः उद्दिष्ट ही प्राप्त हो रहा है, इससे पानाकानी नही होता है-दुखरूप कुछ भी प्रतीत नहीं होता। इसीलिए की जा सकती है। इसके लिए मुमुक्षु भव्य जीवको सर्ववे सदा सुखी रहते है।
प्रथम तो देश-काल और गृहस्थों की वर्तमान परिस्थिति जिन्हें शरीरगत धूलि (मैल) भूषण के समान प्रतीत का विचार करना चाहिए । तत्पश्चात् अन्तःकरण से यदि होती है, स्थान जिनका शिलातल हैं, शय्या जिनकी कफ
मुनिधर्म के निर्वाह की प्रेरणा मिलती है तो इस दुबर रीली भूमि है, सिंहों की गुफा जिनका सुन्दर घर है, व्रतको स्वीकार करना चाहिए, अन्यथा गृहस्थ रहकर भी तथा सब प्रकार के मानसिक सकल्प-विकल्पों से निर्गत यथासम्भव प्रतिमानों का परिपालन करते । धार्मिक होनेसे जिनकी प्रज्ञानरूप गांठ खुल चुकी है; वे मुक्तिसुख जीवन बिताया जा सकता है। धर्मका सम्बन्ध बाप के वांछक विवेकी निःस्पृह साधु हमारे मनको पवित्र करे। नियों की रोषा यामी परिणामों में अधिक है। ___ इससे निश्चित है कि साधुचर्या कष्टप्रद तो है ही, यही कारण है जो प्राचार्य समन्तभद्र मोही मुनिकी अपेक्षा पर जिन्होंने घर-द्वार व स्त्री-पुत्रादि से नाता तोड़कर निर्मोह गृहस्थको अधिक महत्त्व देते हैं। स्वेच्छा से इस प्रसिधारावत को धारण किया है उन्हें वह परन्तु जो इस धर्मको स्वीकार कर चुके है उन्हे कष्टकर प्रतीत नहीं होना चाहिए । अन्तःकरण की साक्षी- परिस्थितिजन्य उस कमीका अनुभव करते हुए अन्तःकरण पूर्वक उसका यथोचित परिपालन करने पर भी यदि कोई से उस पर पश्चात्ताप करते रहना चाहिए। यह सोचना उनकी निन्दा करता है तो उससे उन्हे क्षुब्ध नहीं होना
उचित नहीं होगा कि वर्तमान में जैसे श्रावक अपने धर्म चाहिए, और यदि कोई प्रशसा भी करता है तो उससे
का परिपालन नहीं कर रहे वैसेही यदि साधुभी अपने धर्म सन्तुष्ट भी नही होना चाहिए। कारण कि यह निन्दा
से कुछ च्युत होते है तो इसमे अनहोनी बात क्या है ? स्तुति तो कदाचित् स्वभावसे और कदाचित् किसी स्वार्थ
कारण कि दूसरों की भ्रष्टता से स्वयं भ्रष्ट होना, यह विशेष की सिद्धि के लिए भी की जा सकती है। हां यह
बुद्धिमत्ता की बात नहीं होगी। अवश्य है कि यदि उस निन्दा मे कुछ तथ्य है तो उस पर ध्यान देकर निन्दकके मनोगत भावको न देखते हुए अपनी
४ दोषेषु सत्सु यदि कोऽपि ददाति शापं उस कमी की पूर्तिके लिए प्रयत्नशील रहना चाहिये तथा
सत्य ब्रवीत्ययमिति प्रविचिन्त्य सह्यम् । उसके लिए निन्दकका मनःपूर्वक आभारही मानना चाहिए।
दोषेष्वसत्सु यदि कोऽपि ददाति शापं प्राचार्य अमितगति की यह उक्ति कितनी महत्त्वपूर्ण है
मिथ्या ब्रवीत्ययमिति प्रविचिन्त्य सह्यम् ॥
सुभाषित. २-३१. दोषों के रहते हुए यदि कोई उनके कारण शाप
५ गृहस्थो मोक्षमार्गस्थो निर्मोहो नैव मोहवान् । देता है-निन्दा व अपमानित करता है तो यह विचार
अनगारो गृही श्रेयान् निर्मोहो मोहिनो मुनेः ।। १ अात्मानुशासन २५२. २ वही २५६. ३ वही २५६.
र. क. श्रा. ३३