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________________ मागम और त्रिपिटकों के संदर्भ में प्रजातशत्रु कुणिक चम्पा नगरी के मध्य भाग से होता हुआ पूर्णभद्र चैत्य के कह सके । इससे अधिक की तो बात ही क्या?" यह कह समीप आया। श्रमण भगवान् महाबोर के छत्र आदि कर गजा जिम दिशा से आया था, उस दिशा से वापिस तीर्थकर अतिशय दूर मे देखे । वही उसने हस्तिरत्न छोड गया। दिया। पाचों राज-चिन्ह छोड दिये । वहाँ से वह भगवान जैन या बौद्ध? महावीर के सम्मुख पाया। पच अभिगमन कर भगवान् सामजफल सुत्त और इस प्रौपपातिक प्रकरण को महावीर को वन्दन-नमस्कार किया। वन्दन-नमस्कार कर तुलना की दृष्टि से देखा जाये तो प्रोपपातिक-प्रकरण बहुत मानसिकी, वाचिकी और कायिक उपासना करने लगा। गहरा पड जाता है। सामञ्जफल सुत्त में अजातशत्र के महावीर का उपदेश : श्रवण बद्धानयायी होने में केवल यही पक्ति प्रमाणभूत है, कि भगवान महावीर ने उपस्थित परिषद को अर्धमागधी "अाज से भगवान् मुझे अजलिबद्ध शरणागत उपासक भाषा मे देशना दी, जिसमें बताया- "लोक है, प्रलोक । समझे।' प्रौपपातिक-प्रकरण मे प्रवृत्ति वादुक पुरुष की है। इसी प्रकार जीव, अजीव, बन्ध, मोक्ष, पुण्य, पाप, नियुक्ति, सिंहासन से अभ्युत्थान और णमोत्थुण से अभिप्राथव, सवर, वेदना, निर्जरा आदि है। प्राणातिपात, वन्दन, भक्तिसूचक साक्षात्कार, आदि उसके महावीरामृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, नयायी होने के ज्वलन्त प्रमाण है। इन शब्दों से किलोभ आदि है। प्राणातिपात-विरमण, मृषावाद,विरमण, "जैसा धर्म अापने कहा, वैसा कोई भी श्रमण या ब्राह्मण अदत्तादान-विरमण, मथुन-विरमण, परिग्रह-विरमण,... कहने वाला नही है", उसकी निर्ग्रन्थ धर्म के प्रति पूर्ण यावत् मिथ्यादर्शनशल्यविवेक है। सभी अस्तिभाव अस्ति आस्था व्यक्त होती है । लगता है, बुद्ध के प्रति अजातशत्र में है, सभी नास्ति-भाव नास्ति मे है। सुचीर्ण कर्म का का समर्पण मात्र औपचारिक था। मूलतः वह बुद्ध का सुचीर्ण फल होता है, दुश्चीर्ण कर्म का दुश्चीणं फल होता अनुयायी बना हो, ऐसा प्रतीत नही होता। है। जीव पृण्य-पाप का स्पर्श करते है। जीव जन्म-मरण बुद्ध से जहाँ उसने एक ही बार साक्षात् किया', महाकरते है। पुण्य और पाप सफल है । "धर्म दो प्रकार का वीर से अनेक बार साक्षात् करता ही रहा है। यहां तक है- अगार धर्म और अनगार धर्म । अनगार धर्म का कि महावीर-निर्वाण के पश्चात् महावीर के उत्तराधिकारी तात्पर्य है--सर्वतः सर्वात्मना मुण्ड होकर गहावस्था से सुधर्मा की धर्म-परिषद् मे भी वह उपस्थित होता है। अगृहावस्था मे चले नाना। अर्थात् प्राणातिपात आदि से डा० स्मिथ का कहना है-बौद्ध और जैन दोनों ही सर्वथा विरमण । अगार धर्म बारह प्रकार का है-पाच, अजातशत्रु को अपना-अपना अनुयायी होने का दावा करते अणुव्रत, तीन गुणव्रत व चार शिक्षाव्रत'।" है, पर लगता है, जैनों का दावा अधिक प्राधार-युक्त है। श्रमण भगवान् महावीर से धर्म का श्रमण कर परिषद् - २ णत्थि ण अण्णे केइ समणे वा माहणेवा जे एरिस धम्म उठी। भंभसार पुत्र कुणिक भी उठा। वन्दन-नमस्कार माइक्खित्तए । किमग पुण एत्तो उत्तरतर ? कर बोला--- "भन्ते ! आपका निर्ग्रन्थ प्रवचन सु-आख्यात ३ प्रौपपातिक सूत्र के आधार से । है, सुप्रज्ञप्त है, सुभाषित है' सुविनीत है, सुभावित है, ४ Buddhist India, p. 88. अनुत्तर है, आप ने धर्म को कहते हुए उपशम को कहा, ५ स्थानाग वृत्ति, स्था० ४, उ० ३ उपशम को कहते हुए विवेक को कहा, विवेक को कहते हुए ६ परिशिष्ट पर्व, सर्ग ४, श्लोक १५-५४ विरमण को कहा, विरमण को करते हए पाप कर्मों के Both Buddhists and Jains claimed him as प्रकरण को कहा। one of them serves. The Jain claim app. "अन्य कोई श्रमण या ब्राह्मण नही है, जो ऐसा धर्म ears to be well founded. १ विस्तृत विवेचन के लिए द्रष्टव्य, उपासकदसांग सूत्र --Oxford History of India, by V. A. प्र०१ Smith, Second Edition, Oxford,1923p.51.
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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