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प्रागम और त्रिपिटकों के संदर्भ में प्रजातशत्र कुणिक
कार का उपयोग अजातशत्रु करता था। यह बुद्धिमान है, लडेगे ?" खुल्ले ही द्वार अजातशत्रु नगरी में प्रविष्ट हुग्रा, इसका उपयोग हम ही क्यो न करे? वह शत्रु का शत्रु वैशाली का सर्वनाश कर चला गया। है; अतः पादरणीय है।" इस धारणा पर उन्होने वस्स- महापरिनिव्वान मुत्त के अनुसार-प्रजातशत्रु के दो कार को अपने यहाँ अमात्य बना दिया।
महामात्य सुनीध और वस्सकार मे वज्जियों से सुरक्षित _ थोड ही दिनो मे उसने वहाँ अपना प्रभाव जमा रहने के लिए गगा के तट पर ही पाटलिपुत्र नगर बसाया। लिया। अब उसने बज्जियों में भेद डालने की बात शुरू जब वह बसाया जा रहा था, सयोगवश बुद्ध भी वहाँ पाये, की। बहुत सारे लिच्छवी एकत्रित होते, वह किसी एक से सुनीध और वस्सकार के प्रामन्त्रण पर भोजन किया। एकान्त होकर पूछता-"खेत जोतते हो?"
चर्चा चलने पर पाटलिपुत्र की प्रशसा की और उसके तीन "हाँ, जीतते है।"
अन्तराय बताये-पाग, पानी और पारस्परिक भेद । बुद्ध "दो बैल जोत कर?"
के कथनानुसार प्रर्यास्त्रग-देवों के साथ मन्त्रणा करके "हा, दो बैल जोतकर ।"
सुनीघ और वस्सकार ने यह नगर बमाया था। दूसरा लिच्छवी उस लिच्छवी को एकान्त मे जाकर
समीक्षा पूछता- 'महामात्य ने क्या कहा ?" वह सारी बात उसे दोनों ही परम्पराएँ अपने-अपने ढंग मगध-विजय और कह देता; पर उसे विश्वास नहीं होता कि महामात्य ने वैशाली-भंग का पूरा-पूग व्योरा देती हैं । बुद्ध का निमित्त ऐसी साधारण बात की होगी।" "मेरे पर तुम्हे विश्वास युद्ध का प्रकार प्रादि दोनो परम्परामो के सर्वथा भिन्न नहीं है। सही नही बतला रहे हो।" यह कह सदा के है। जैन परम्परा चेटक को लिच्छवी-नायक के रूप मे लिए वह उससे टूट जाता। कभी किसी लिच्छवी को व्यक्त करती है। बौद्ध परम्परा प्रतिपक्ष के रूप में केवल वस्सकार कहता-"आज तुम्हारे घर मे क्या शाक बनाया वज्जीसघ (लिच्छवी-सघ) को ही प्रस्तुत करती है। था?" वही बात फिर घटित होती। किसी एक लिच्छवी जैन परम्परा के कुछ उल्लेख, जैसे-कूणिक व चेटक की को एकान्त मे ले जाकर कहता-"तुम बड़े गरीब हो।" क्रमशः ३३ करोड़ व ५७ करोड़ की सेना, शक्र और किसी को कहता-"तुम बड़े कायर हो।" 'किसने कहा?' असुरेन्द्र का सहयोग, दो ही दिनो मे १ करोड ५० लाख पूछे जाने पर उत्तर देता-"अमुक लिच्छवी ने, अमुक मनुष्यो का वध होना, कूल बालक के सम्बन्ध से आकाशअमुक लिच्छवी ने।"
वाणी का सहयोग होना, स्तूपमात्र के टुट जाने से लिच्छ__ कुछ ही दिनों मे लिच्छवियों मे परस्पर इतना प्रवि- वियो की पराजय हा जाना प्रादि बाते पालकारिक जैसी श्वास और मनोमालिन्य हो गया कि एक रास्ते से भी लगती है। बौद्ध परम्परा का वर्णन अधिक सहज और दो लिच्छवी नही निकलते । एक दिन वस्सकार ने सन्नि- स्वाभाविक लगता है। युद्ध के निमित्त मे एक मोर रत्नपात भेरी बजवाई। एक भी लिच्छवी नही पाया तब उसे राशि का उल्लेख है, तो एक और महाध्य देव-प्रदत्त हार निश्चय हो गया कि अब वज्जियो को जीतना बहत का। भावनात्मक समानता अवश्य है। चेटक के बाण को प्रासान है। अजातशत्र को प्राक्रमण के लिए उसने जैन परम्परा मे अमोघ बताया गया है। बौद्ध परम्परा प्रच्छन्न रूप से कहला दिया। अजातशत्रु ससैन्य चल का यह उल्लेख-"उन (वज्जिगण) का एक भी प्रहार पड़ा। वैशाली में भेरी बजी-"पायो चले, शत्रु को गगा निष्फल नहीं जाता", उसी प्रकार का सकेत देता है। पार न होने दे।" कोई नही पाया। दूसरी भेरी बजी- जैन परम्परा स्तूप के प्रभाव से नगरी की सुरक्षा "प्रामो चलें, नगर में न घुसने दे। द्वार बन्द करके रहे।" बताती है, बुद्ध कहते हैं-"जब तक वज्जी नगर के बाहर कोई नही पाया। भेरी सुनकर सब यही बोलते-"हम
व भीतर के चैत्यो (स्तूपों) का प्रादर करेंगे, तब तक तो गरीब हैं, हम क्या लड़ेंगे?"; हम तो कायर है, हम । क्या लड़ेंगे ?"; "जो श्रीमन्त हैं और शौर्यवन्त हैं, वे १. दीघनिकाय अट्ठकथा, खण्ड २, पृ. ५२३