________________
“युगवीर" के जीवन का भव्य अन्त
डा० श्रीचन्द जैन 'संगल'
मुख्तार सा० का जन्म हमारे कानूनगोयान वंश में कि आपका गुरदों का यह रोग है सो आसानी से नहीं मगसिर सुदी एकादशी सं० १८३४ में कस्बा सरसावा जायगा और असाध्य भी हो सकता है। इस पर वे उस जिला सहारनपुर में मातृभूदेवी के उदर से हुआ था रोग की ओर से कुछ उदासीन से हो गये थे, किन्तु औषधि पिता का नाम चौधरी नत्थूमल था और यह वश बहत बराबर नियम पूर्वक लेते रहते थे और साथ ही उसका पुराना चला आ रहा है और इसका शजरा अकबर बाद- परहेज भी पूर्ण रूप से पालते थे । परन्तु चिन्ता कम करते शाह के समय तक तो मिला है उससे पहले का नहीं और अपनी बंधी हुई खुराक नित्य नियम पूर्वक लेते रहते मिला। बाकी और परिचय उनकी परिचय पुस्तक जो थे; क्योंकि उन्हे अपने शरीर का अधिक मोह था, इसको डा० नेमिचन्द जी जोतिषाचार्य अध्यक्ष अ०भा० विद्वद जरा भी कष्ट नहीं होने देते थे यह रोग मेरा स्वास्थ बिगाड़ परिषद् ने अभी हाल ही मे, जो उन्होने ५ दिसम्बर सन् रहा है इसका इलाज नहीं है मै सीधे रूप से उनसे कह १९६८ में, जब वे एटा मे प्राचार्य जुगलकिशोर जी को देता कि अच्छे डाक्टर और वैद्य का इलाज हो रहा है अ०भा० विद्वद परिषद की ओर से सम्मान पत्र भेट आप औषधि सेवन करते रहे और चिन्ता न करें, सब ठीक करने आये थे निकाली थी उसमे देख लीजियेगा। उसमे हो जायगा। हरएक रोग की प्रौषधि तो है पर हरएक विशेषरूप से उनका परिचय व उनके सारे जीवन की रोगी औषधि नहीं है । जब अशुभ कर्म का विपाक शान्त झलक व उनकी कृतियो के लेख मिलेगे ।
हो जायगा तो रोग भी शान्त हो जायगा। इस पर हँसयो तो मुस्तारश्री मेरे पास करीब पांच साल से रह कर बोले कि मै तुम्हारे कहने का तात्पर्य समझ गया । रहे थे और उनका यहाँ पर जीवन कार्यक्रम ठीक प्रकार इसकी चिकित्सा तो अवश्य होती ही रहनी चाहिये। मै से उनकी रुचि के अनुसार चल रहा था और वे यहां कह दिया करता इससे अाप निश्चिन्त रहें बढ़िया से बढिया पर प्रसन्न भी थे, परन्तु डेढ साल से इधर अस्वस्थ चल दवा पापको मिलती रहेगी। औषधि खाने के तो वे पहले रहे थे। सबसे पहले उन्हें यकायक तकलीफ गुरदो की से ही बहुत अभयस्त थे और अपनी खुराक, सयम और हुई, जिसके कारण उन्हे १७ जून १९६७ मे पेशाब मे मनोबल के आधार पर ही ६२ वर्ष की आयु पाई जो हमारे खुन पाया, न कोई जलन, न पीड़ा, न पथरी आदि मालम किसी बुजर्ग की नहीं हुई। दवा नियम पूर्वक खाना और हुई, तीन दिन तक खून हर पेशाब के साथ प्राता रहा। परहेज पूर्ण रूप से पालते थे और औषधि लाभ भी करती चिन्ता काफी उत्पन्न हो गई दूसरे डाक्टरों को भी बुला- थी परन्तु यह बीमारी जाने वाली नही थी और इसी के कर दिखाया, उपचार से खून तो बन्द हो गया; परन्तु कारण बढिया उपचार होते हुए भी शरीर में निर्बलता उसके बाद ही उन्हे ज्वर हो गया वह भी चार-पाँच दिन आती रही। दो-तीन दफा तो ऐसी स्थिति हो गई कि मे शान्त हो गया उसके बाद सारे शरीर में सूजन एग- भाई दरबारीलाल जी कोठिया व बहन जैवंतीदेवी को जिमा और पेशाब मे खून के दौरे पड़ते रहते, ज्वर भी शोचनीय दशा की सूचना देनी पडी, वे लोग आये और प्राता रहा और स्वास्थ्य गिरता चला गया । परन्तु उनमे कुछ दिन ठहर कर चले गये । प्रायुकर्म बलवान था और मनोबल अधिक होने के कारण वे इस बीमारी के प्रकोप ठीक हो जाते थे। यह क्रम चलता रहा परन्तु अपनी की अनुभूति कुछ साधारण रूप से ही सहने लगे थे और खुराक कभी नहीं छोड़ते थे और हमेशा यही कहते थे कि अधिक चिन्ता नहीं करते थे। डाक्टरों ने जब उनसे कहा अभी मैं तो १०० वर्ष तक जीवित रहूँगा और तुमसे भी