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मथुरा के सेठ लक्मीचन्द सम्बन्धी विशेष जानकारी
विशाल मन्दिर निर्माण करने की योजना बनायी थी। किया था, तब उसने स्थानीय कलक्टर मि० थोहिल पहले उन्होंने वहाँ पर श्री लक्ष्मीनारायण जी का मन्दिर तथा उसके साथियों को कई दिनों तक अपने मकान मे बनवा कर उसे रंगाचार्य जी को भेंट कर दिया। छिपाये रखा था। उसने सरकारी खजाने की रक्षा की
बाद मे स० १९०१ मे उन्होंने श्री रंगजी का विशाल थी और नगर को क्षति से बचा लिया था। जब तक मन्दिर बनवाना प्रारभ किया, किन्तु धन की यथेष्ट विद्रोह ज्ञात नहीं हुआ, तब तक दीन-दुखियों और जरूरत व्यवस्था न होने से उसका निर्माण कार्य रोक देना पड़ा। मन्दों को उसकी पोर से सब प्रकार की सहायता मिलती जब सेठ लक्ष्मीचन्द को उसका ज्ञान हुआ, तब उसने स्वय रही थी। इसमें उसका प्रचुर धन व्यय हुआ था। उसके उसे पूरा किया था। इस प्रकार यह मन्दिर ४५ लाख उपलक्ष में अंगरेजो ने उसे 'रायबहादुर' की पदवी तथा रुपये की लागत से सं० १९०८ मे बनकर पूरा हुआ था। खिलअत और माफी की भूमि प्रदान की थी। यह ब्रज का सबसे विशाल एव सर्वाधिक वैभव सम्पन्न उसने अकाल पीडित लोगो की सहायता करने तथा देव स्थान है और रामानुज संप्रदाय का सबसे बड़ा केन्द्र शिक्षालय बनाने के लिए भी प्रचुर धन दिया था। जब है। इसमें चैत्र के महीने मे 'ब्रह्मोत्सव' का बडा धार्मिक मथुरा से हाथरस तक रेले बनाने का प्रश्न उठा, तब रेल समारोह होता है, जो दस दिनों तक चलता है। इसकी कम्पनी ने उसे इस शर्त पर बनाना स्वीकार किया कि संपत्ति एक करोड से भी अधिक की मानी जाती है। उसके निर्माण-व्यय का कुछ भाग मथुग के निवासी भी हवेली और उद्यान :
उठावें । तब सेठों ने प्राय. डेढ लाख के शेयर लिए थे। सेठ लक्ष्मीचन्द के निर्माण कार्यों में उसकी हवेली
और पुल बनवाने का समस्त व्यय-भार भी उठाया था। और सुरम्य उद्यान भी उल्लेखनीय है। हवेली मथुरा के
यहाँ तक कि उन्होने मदर के ईसाई गिर्जाघर के निर्माप्रसिकुडा बाजार मे श्री द्वारिकाधीश जी के मन्दिर के
णार्थ भी ११००) प्रदान किये थे। सामने बनी हुई है और 'सेठ जी की हवेली' कहलाती है। लक्ष्मी चन्द के उत्तराधिकारी :इसका विस्तार असिकडा घाट से लेकर विश्राम घाट तक सेठ लक्ष्मी चन्द की मृत्यु सं० १९२३ मे हुई थी। है। यह हवेली स० १६०२ मे बनी थी और इसके उससे पहले उसके अनुज सेठ राधाकृष्ण का देहान्त सं. निर्माण में उस समय प्रायः एक लाख रुपये की लागत १६१६ में हो चुका था। सोठ लक्ष्मीचन्द का एकमात्र पाई थी। उसका उद्यान मथुरा के सदर बाजार के समीप
पुत्र रघुनाथ दास विशेष प्रतिभाशाली नही था। और यमुना के किनारे बना हुआ है और 'यमुना बाग' कह
राधाकृष्ण का पुत्र लक्ष्मणदास छोटा बालक था । प्रतः लाता है । इसमे दुर्लभ जाति के पेड-पौधे, सुन्दर इमारते
सेठों का समस्त कारबार सेठ गोबिंददास की देख-रेख मे और रमणीक कुज है। इसकी विशेष उन्नति लक्ष्मीचन्द
चलता रहा । उस समय भी सेठो की प्रतिष्ठा खूब बढ़ी के वंशज राजा लक्ष्मणदास के काल में हुई थी।
हुई थी। ब्रिटिश शासन में सेठ गोबिंददास को स० विविध कार्य :
१९३४ (१ जनवरी, सन् १८७७) में C.S.I. का खिताब स० १६१४ मे जब अंग्रेजी शासन के विरुद्ध जन- दिया था। उसकी मृत्यु स० १६३५ मे हुई थी। मृत्यु से विद्रोह हुप्रा था, तब मथुरा नगर मे भी उपद्रव होने की पहिले उसने श्री द्वारिकाधीश जी के मन्दिर को स० प्राशका हो गयी थी। उस समय सेठ लक्ष्मीचन्द ने अपने १९३० मे कांकरौली के गोस्वामी गिरधरलाल जी को प्रभाव से यहाँ शाति और व्यवस्था कायम करने में बड़ा भेट कर दिया था। सेठ गोविददास के कोई सन्तान काम किया था। एक ओर उसने विद्रोहियो को मार्थिक नही थी। सेठ लक्ष्मी चन्द के पुत्र रघुनाथ दास के भी सहायता से सन्तुष्ट कर नगर की रक्षा की थी तो दूसरी कोई संतान नही हुई थी। इसलिए सेठ राधाकृष्ण का पोर उसने अंगरेजो की भी बडी सहायता की थी। जब पुत्र लक्ष्मणदास सोठों की गद्दी, जायदाद और सम्पत्ति का विद्रोहियों ने छावनी को जलाकर अंगरेजो पर हमला एक मात्र स्वत्वाधिकारी हुपा था।