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________________ देवागम स्तोत्र व उसका हिन्दी अनुवाद को क्यों प्राप्त होगा? उदाहरणार्थ वृक्ष के एक होते हुये मानने में भी द्वैत का प्रसंग अनिवार्य रहेगा, क्योकि अद्वत भी उसमे कर्ता आदि कारको का भेद इस प्रकार देखा के अतिरिक्त प्रागम को भी मानना पडता है। और यदि जाता है-वृक्ष वन में स्थित हो रहा है (कर्ता), वृक्ष को हेतु व मागम दोनों के बिना ही उस प्रत की सिद्धि की बेले लिपट रही है (कर्म), वृक्ष के द्वारा गिरता हुया जाती है तो फिर वचन मात्र से द्वैत की भी सिद्धि क्यों न हो हाथी मारा गया (करण', वृक्ष के लिए जल देना चाहिए जायगी ? अभिप्राय यह है कि कहने मात्र से कभी किसी (सम्प्रदान), इत्यादि । इसी प्रकार अग्नि के एक होते तत्त्व की सिद्धि नहीं होती। उसके लिये युक्ति आदि का हुए भी उसम जलाने और पकाने आदि जैसा क्रियाभेद पाश्रय लेना ही पड़ता है । इसके साथ यह भी एक अटल देखा ही जाता है। परन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योकि नियम है कि निषेध्य वस्तु का निषध उसकी विधिपूर्वक ही यहाँ प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि अद्वैत में वह भेद हुमा करता है । उदाहरणार्थ गाय-भैस प्रादि इतर पशुओं सम्भव है तो यह बताया जाय कि उक्त भेद नित्य है या मे जब सीग उपलब्ध होते है तभी घोडा व गधे मादि के अनित्य ? नित्य तो वह हो नहीं सकता, क्योंकि, जब तब उनका निषेध किया जाता है, अन्यथा उनके निषेध की ही वह देखा जाता हे--मर्वदा नही देखा जाता। तब यदि कल्पना ही नही हो सकती थी। तदनुसार दंत के बिना उसे अनित्य माना जाता है तो पन. यह प्रश्न उपस्थित उसका निषध-प्रत-भी सम्भव नही है (२५-२७ ) । होता है कि अनित्य होने पर वह उत्पन्न कहाँ से हमा? इसके विपरीत जो वैशेषिक, नैयायिक और बौद्ध ग्रादि उत्तर में यदि यह कहा जाय कि उसी परब्रह्म से (अथवा विविध द्रव्य-गुणादि पदार्थो को परस्पर मे सर्वथा पृथक ही विज्ञान आदि से) तो ऐसी अवस्था में अद्वैत कान्त का वि- स्वीकार करते है-परस्पर में किसी भी अपेक्षा से अभेद घातक कारण-कार्य का भेद आकर उपस्थित होता है, नही मानते है-उनके इस अभिमत को अयुक्तिसगत बतक्योकि, अपने आपमे कभी किसी की उत्पत्ति सम्भव नहीं लाते हुए प्रथमतः वैशेषिका को लक्ष्य करके कहा गया है है (२४)। कि जिस पृथक्त्व गुण के प्राथय से द्रव्य और गुण आदि उपयुक्त अद्वैत की कल्पना मे पुण्य-पाप, उनका फल- पदार्थों में सर्वथा पार्थक्य स्वीकार किया जाता है वह सुख-दुख, इहलोक-परलोक, ज्ञान-अज्ञान और बन्ध-मोक्ष पृथक्त्व गुण उन द्रव्य और गुण प्रादि से अपृथक् है या की भी जो द्विविधता प्रमाणसिद्ध दिख रही है वह असम्भव पृथक् ? अपृथक् तो उसे माना नही जा सकता, क्योकि, वैसा हो जावेगी। इसके अतिरिक्त इन अद्वैतवादियों से पूछा जा मानने पर अभीष्ट पृथक्त्वैकान्त का विरोष, होता हैसकता है कि प्रत्यक्ष के अगोचर उस अद्वैत की सिद्धि गुण और गुणी प्रादि पदार्थों में जो वैशेषिकों के द्वारा पाप क्या किसी हेतु (युक्ति) से करते है या बिना ही हेतु सर्वथा पृथक्ता स्वीकार की गई है वह बाघा को प्राप्त के ? यदि उसकी सिद्धि किसी हेतु से की जाती है तो वह होती है। तब यदि उसे उक्त द्रव्य और गुण से पृथक् ही हेत और साध्यभूत अद्वैत ये दो पदार्थ उस अद्वैत के वि- माना जाता माना जाता है तो फिर उसके उनसे सर्वथा पृथक् रहने पर घातक स्वय सिद्ध हो जाते है । ऐसी अवस्था में वह सर्वथा तत्कृत पृथक्ता उनमे नही रहती-इम प्रकार से तो उक्त अद्वैत कहा रहा? इसके विपरीत यदि यह कहा जाय कि द्रव्य-गुण अपृथक् ही ठहरते है । कारण यह कि कथचित् उसकी सिद्धि हेतु के बिना आगम से की जाती है तो ऐसा तादात्म्यके बिना जैसे घट और पट सर्वथा भिन्न है वैसे ही १. वृक्षस्तिष्ठति कानने कुमुमिते वृक्ष लताः सथिताः उस पृथक्त्व गुण के भी उनसे सर्वथा भिन्न रहने के कारण वृक्षणाभिहतो गजो निपतितो वृक्षाय देय जलम् । 'उनका यह गुण है' यह भी नहीं कहा जा सकता; क्योकि वृक्षादानय मञ्जरी कुसुमिता वृक्षस्य शाखोन्नता वैशेषिक मतानुसार वह किसी एक पृथक्त्ववान् मे नही वृक्षे नीडमिद कृतं शकुनिना हे वृक्ष कि कम्पसे ।। रहता-अनेक मे युगपत् उसका अवस्थान माना गया है, दूसरा उदाहरण 'धर्मः सर्वसुखाकरो हितकरो धर्म जो असगत है (२८) । बुधाश्चिन्वते' आदि भी है। बौद्ध सम्प्रदाय में एकत्व (प्रभेव)को किसी प्रकार से
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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