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साहित्य-गगन का एक नक्षत्र प्रस्त
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की स्थापना की। इसी प्राश्रम को वीरसेवामदिर भी कहते रहे । उन्होंने दिल्ली में रहकर भी समन्तभद्र स्वामी के थे। इसकी अोर से 'अनेकान्त' नामक एक पत्र निकाला। प्रथों का भाष्य, अनुवाद किया, तत्वानुशासन ग्रन्थ की वीर सेवा मदिर एक प्रकार से जैन समाज का शोध विस्तृत टीका की। उनकी महत्वपूर्ण उपलब्धि रही संस्थान था, जहाँ विविध शोध खोज, सपादन, ग्रन्थ-प्रणयन आचार्य सिद्धसेन दिवाकर पर एक स्वतन्त्र निबन्ध । इसमें के कार्य पलते थे। कई विद्वान भी रहते थे। आपने उन्होने अनेक प्रमाणो और तर्कों से यह सिद्ध किया है कि अपनी समस्त सम्पति का दुस्ट कर दिया और इस ट्रस्ट से सिद्धसेन दिगम्बर परम्परा के प्राचार्य थे। वीर सेवा मदिर का सचालन होता था।
मुख्तार साहब जो कुछ लिखते थे वह सप्रमाण, वीर सेवा मन्दिर कुछ वर्प दिल्ली रहकर सरसावा ।
सयुक्तिक । उनके प्रमाण अकाट्य होते थे, उनकी युक्ति में मे चला गया। सरसाबा में इस सस्था ने शोध-खोज का
प्रौढता रहती। उनकी भाषा प्रांजल थी। वे कवि निबंधबहुत महत्वपूर्ण कार्य किया। पुरातन जैन वाक्य सूची कार भाष्यकार, टीकाकार, समीक्षक सभी कुछ थे। उनके जैन लक्षणावली, अनेक दिगम्बर जैनाचार्यों का काल
ग्रन्थों की प्रस्तावनायें स्वतंत्र ग्रथों से कम नहीं है। उनकी निर्णय और उनका प्रामाणिक इतिहास, स्वोपज्ञ
ऐतिहासिक खोजे ऐसी है जिनको इतिहास जगत में प्रमाण तत्त्वार्थाधिगम भाप्य स्वय प्राचार्य उमास्वामी की रचना
माना जाता है और इतिहासकार जिनके लिए मुख्तार है इसके सम्बध में प्रामाणिक निर्णय स्वामी साहब के सदा ऋणी रहेंगे। उनकी एक कृति मेरी भावना समन्तभद्र का प्रामाणिक इतिहास ग्रादि महत्वपूर्ण कार्य ता एक राष्ट्राय गात हा बन यहीं पर हुए। वास्तव में सरसावा मे बीर सेवा मन्दिर ने नारी नित्य पाठ करते है। जा काय किया, वह जन वाहमय के इतिहास में अमर मुख्तार साहब कहा करते थे कि मै सौ वर्ष तक रहेगा । सौभाग्य से मुख्तार साहब को प० दरबारीलालजी जीऊगा। मुझे अभी बहुत कार्य करना है। जब तक वे कोठिया, प० परमानन्द जी जैसे प्रतिभा के धनी विद्वानी जिए सदा कार्य करते रहे। अपने एक-एक क्षण का का सहयोग भी मिल गया, जिससे कार्य में पर्याप्त उपयोग उन्होने जैन साहित्य निर्माण के लिए किया। प्रगति हुई।
किन्तु विधि का यह क्रूर विधान ही कहना चाहिए कि वीर सेवा मन्दिर सरसावा से दरियागंज में निर्मित
उनकी सौ वर्ष जीने की इच्छा पूरी नही हो पाई और अपने भवन में पुनः दिल्ली मे पा गया। यहा पाकर कुछ
वे पहले ही चले गये। जीवन के अन्तिम वर्षों में उनकी वों के पश्चात् वीर सेवा मन्दिर दो भागो में बंट
एक ही इच्छा रही कि समन्तभद्र-भारती के प्रचार-प्रसार गया-वीर-सेवा-मन्दिर और वीर सेबा मन्दिर ट्रस्ट ।
के लिए विद्वानो की एक सस्था का निर्माण हो, जहा से वीर सेवा मन्दिर का सचालन बा० छोटेलाल जी सरावगी
एक पत्र का प्रकाशन हो । इस कार्य के लिए उन्होंने एक और वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट का सचालन मुख्तार साहब के
अच्छी निधि स्वय देने की इच्छा प्रकट की थी। किन्तु वे नेतृत्वमे होने लगा । यह कहता शायद अधिक उपयुक्त होगा
अपनी इच्छा को मूर्त रूप न दे सके। यदि वैसी सस्था कि दिल्ली देश की राजधानी है। यहा राजनैतिक और
का निर्माण सभव न हो और वीर सेवा मन्दिर और ट्रस्ट कूट-नैतिक गतिविधियाँ प्रमुख रूप से होती है । वीर सेवा
दोनो का एकीकरण करके उनकी इच्छा के अनुरूप वहा मन्दिर पर भी इन गतिविधियों का प्रभाव पड़ा और वह
कार्य किया जा सके तो इससे उनकी इच्छा की कुछ पूर्ति वर्षों तक कूटनैतिक भवर मे पड़ा रहा और जो कार्य इस
भी हो सकेगी और उपयोगी कार्य भी हो सकेगा । क्या संस्था से अपेक्षित था, वह शायद न हो सका।
वीर सेवा मन्दिर और ट्रस्ट के अधिकारी हमारे इस
निवेदन पर ध्यान देगे। हमारी दृष्टि से मुख्तार साहब के किन्तु मुख्तार साहब की साहित्यिक प्रवृत्ति तो जैसे प्रति सच्ची श्रद्धांजलि एक ही होगी-उनकी अन्तिम इच्छा उनकी प्रकृति ही थी। वे सतत साहित्य निर्माण में लगे की पूर्ति ।