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साहित्य-गगन का एक नक्षत्र अस्त
श्री बलभद्र जैन न्यायतीर्थ मेरी भावना' के अमर उद्गाता आचार्य युगलकिशोर अनाचार पोपक ग्रन्थों को सर्वसाधारण श्रद्धा से मान रहा 'युगवीर' का ६२ वर्ष की अवस्था मे दिनांक २२ दिसम्बर था . यह देखकर आपके हृदय को अत्यन्त पीड़ा होती को एटा में स्वर्गवास हो गया, इस समाचार को पढ़कर थी। अपनी इस पीड़ा की चर्चा आपने अपने मित्र वा० सभी स्तब्ध रह गये। अभी दि० ६-११-६८ को भारत- सूरजभान जी वकील से की। दोनो ने इस प्राचार का वर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत्परिषद ने एटा में उनका विरोध करने का सकल्प किया और इसके लिये एक साथ सार्वजनिक सम्मान किया था। किन्तु यह किसे पता था १२ फरवरी १९१४ को अपने पेशे को छोड़ दिया और कि सम्मान-समारोह के डेढ माह पश्चात् ही उनका जैन वाङ्मय और जैनधर्म की सेवा मे जुट पड़े। आकस्मिक निधन हो जायगा। विधि का यह कैसा क्रूर अनेक भट्टारको ने जैन मान्यताओं के विरुद्ध ग्रन्थों व्यग्य है।
की रचना कर डाली थी। उससे जैन समाज मे नाना आपका जन्म मार्गशीर्ष शुक्ला एकादशी विक्रम प्रकार की मूढ़ताओं का प्रचार हो रहा था। भट्टारक संवत् १९३४ को सन्ध्या समय (सरसावा जिला सहारन समाज की श्रद्धा के पात्र रहे है। अतः उनकी रचनाओं पुर) में माता भूईदेवी की कुक्षि से हुअा। आप के पिता का आदर, पठन-पाठन खूब होता था । सम्भवतः इतिहास का नाम चौधरी नत्थूमल जी अग्रवाल था। तब किसे मे प्रथम बार मुख्तार साहब ने बड़े परिश्रम से भट्टारको पता था कि बह बालक सरस्वती का वरदान प्राप्त करके की रचनाओ का अध्ययन करके जैनधर्म के विरुद्ध मान्य
और समाज की जीर्णशीर्ण रूढ़ियो पर बज्र प्रहार करके ताओ की कड़ी आलोचना की और 'ग्रन्थ-परीक्षा' का एक सामाजिक क्रान्ति करेगा; प्राचार्यों के नाम पर प्रणयन किया। इस ग्रन्थ के प्रगट होते ही समाज में ग्रन्थ-रचना करने वाले भट्टारकों की प्रक्षित रचनाओं खलबली मच गई। जैन विद्यालयों में से ऐसी रचनायो की शल्यक्रिया करके; दिगम्बर जैनाचार्यों के प्रामाणिक का बहिष्कार हआ। मन्दिरो मे से भट्टारकों के ऐसे ग्रन्थों जीवन-इतिहास की शोध खोज की दिशा में नये कीति- का बहिष्कार हया। उस समय जिन पडितो ने मुख्तार मान स्थापित करेगा; और जैन वाङमय की गरिमा को । साहब का विरोध किया, उन पडितो के सम्मान को भी सरस्वती-पुत्रों के समक्ष सिद्ध करेगा।
गहरा आघात लगा। विद्वानो ने तभी मुख्तार साहब की बचपन में आपने उर्दू, फारसी, हिन्दी, संस्कृत और प्रतिभा और विद्वत्ता का लोहा मान लिया। अंग्रेजी का अध्ययन किया। बारह वर्ष की अवस्था मे इन्ही दिनो माता-पिता का स्वर्गवास हो गया। दो आपका विवाह हो गया। बचपन से ही जैन शास्त्रो का पुत्रियाँ हई-सन्मतिकूमारी और विद्यावती । और दोनो स्वाध्याय करने की आपकी प्रवृत्ति रही । मुख्तारकारी को का क्रमशः ८ वर्ष और तीन माह की आयु में निधन हो परीक्षा देकर अदालत मे मुख्तार हो गये । दस वर्ष तक गया। और १५ मार्च १९१८ को आपकी जीवन सगिनी आपने यह व्यवसाय किया। इस काल मे अपने पेशे मे पत्नी भी आपका साथ छोड़कर सदा के लिये चली गई। अापने पर्याप्त यश और धन अजित किया। यद्यपि यह घोर संकट आ पड़ा था। किन्तु साधना संकटों के वकालत का पेशा झूठ के बिना नही चलता, किन्तु बिना चलती कहाँ है । अब गार्हस्थिक झंझटों और मापका नियम था कि झूठा मुकदमा नही लेना। और चिन्तामों से निराकुल होकर वे एकात्म्य भाव से जैन आपने इस नियम का निर्वाह अन्त तक किया।
वाङमय की सेवा में ही जुट गये। व्यवसाय के साथ-साथ आपकी ज्ञान-साधना भी चल आप बहुत समय तक जैन गजट के भी संपादक रहे । रही थी। उन दिनों भट्टारकों की भ्रष्ट प्रवृत्तियों और मापने २१ अप्रैल सन् १९२६ में दिल्ली में समन्तभद्राश्रम