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________________ कतिपय भांजलियां १९९ में सार्वजनिक रूप से कविता के भाव को पालोकित करती सूक्ष्म प्रखण्ड पुद्गलपिण्ड (काय)' को जीव की संज्ञा रहती है। मेरी भावना के पढ़ने से हृदय के तार झन- देकर जो चुनौती दी (भनेकान्त, जून'४२ पृ० २०५) झना उठते हैं। इसे मेरी भावना की कविता को राष्ट्रीय उसका जवाब सत्ताइस बरस बाद भी किसी को नहीं गीत के रूप मे अनेक प्रान्तीय सरकारों ने मान्यता दी है सूझ पड़ा। और जेलों तक की दैनिक प्रार्थनामों में इसे शामिल किया हिन्दी को सर्व सम्मत और सर्वगुणसम्पन्न बनाने के है। यह अनेक भारतीय भाषाओं और अंग्रेजी में लाखों लिए उसमे उच्च कोटि के विपुल साहित्य का निर्माण ही की तादात में प्रसारित हो चुकी है। इसे जेलों मे प्रसार एकमात्र उपाय जो मुख्तार जी ने, स्वतत्रता से काफी कराने का सौभाग्य इस लेखक को भी प्राप्त हुआ है। पहले सुझाया था, उसके बिना आज भी कल्याण नही। पाप २-३ वर्ष से एटा मे अपने भतीजे डा० श्रीचन्द इस तरह सामाजिक, साहित्यिक, धार्मिक, माध्यात्मिक जी सगल के निवास स्थान पर चले गए थे डा० साहब और राजनीतिक क्षेत्र मे दी गई चूनौतियो का माकूल भी उनकी परिचर्या में सलग्न रहे। अन्त में ६२ वर्ष की जवाब देकर ही हम स्व० मुख्तार जी के कर्ज से बरी लंबी आयु मे ता० २२ दिसम्बर १९६८ को अपनी जीवन हो सकते है। हमारी श्रद्धाजलि तभी सार्थक होगी : लीला समाप्त कर ससार से चले गए। डा. प्रेमसागर जी जैन अन्त मे मैं ऐसी दिव्य प्रात्मा को श्रद्धांजलि अर्पित पं. जुगलकिशोर जी मुख्तार, जीवन की अन्तिम करना उनकी मानवोचित मेरी भावना के एक छद को सांस तक जैन साहित्य के अनुसधान और सम्पादन में लिख कर लेख को समाप्त करता हूँ लगे रहे । इतना ही नही, उन्होने उस साहित्य को हिन्दी रहे भावना ऐसी मेरी सरल सत्य व्यवहार करूँ, मे अनूदित कर जनसाधारण के लिए सुलभ बनाया। बने जहाँ तक इस जीवन मे पोरों का उपकार करूँ। शोधपूर्ण प्रस्तावनायें लिखी-ऐसी कि एक-एक पर पी० पं० गोपीलाल जी 'अमर' एम. ए. एच. डी. सहज ही प्राप्त हो सकती है। इस सब में प्राचार्य जुगलकिशोर मुख्तार का अध्ययन-मनन उन्हें प्रानन्द मिला और उनका मन केन्द्रित रहा । वे एक इतना मौलिक था कि उसके पागे निराधार परम्पराय साधक थे। उनकी साधना का दीप सूनी कुटिया के कोने टिकती न थी, और इतना सूक्ष्म था कि उसके आगे थोथे मे रजनी-भर जलता रहा। तक नाकाम हो जाते थे। वे शोध-खोज की सूखी राह के राही थे और इस दलित वर्ग, दस्सा, बिनेकया, स्त्रियों आदि की शास्त्र सन्दर्भ मे लोग उन्हें नितात शुष्क समझते है, किन्तु ऐसा सम्मत वकालत करके उन्होने जैन समाज को सभ्य था नही, उनका हृदय रस-स्रोत था। मैं कहता हूँ कि समाज की श्रेणी में लाने की पुरजोर कोशिश की। यदि उन्होने यह सब कुछ बिलकूल न किया होता तो 'ग्रन्थपरीक्षा' के जरिए मुख्तार जी ने भट्टारकों के केवल 'मेरी भावना' ही उनकी व्यापक ख्याति का एक साहित्यिक षड्यन्त्र और स्वेच्छाचार का भंडाभोड़ किया मात्र प्राधार थी। आज भी जन-जन में वही व्याप्त है। और जैन साहित्य में सदियों से घर बनाते पा रहे जैनेतर वही उसकी यश-निझरणी है। मै ऐसे एक साधक को तत्त्वों को निर्मम होकर निकाल फेका । जिसने अपनी साधना से हृदय और बुद्धि को समरूप मे ___काली कमाई को धर्म के नाम पर सफेद बनाने वाले पर सफर बनान वाल साधा था, श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ। यजमानों को और हां में हां मिलाकर झोली भरने वाले पुरोहितों को उन्होंने कठोर चेतावनी दी कि वे किराए डा. कस्तूरचन्द जी कासलीवाल, 1. >जयपुर की पूजन के लिए मंदिर-मूर्तियों का निर्माण न करायें। पोर पं० अनूपचन्द जी न्यायतीर्थ ) अध्यात्मवाद के नाम पर विज्ञानसिद्ध सचाइयों को श्रद्धेय श्री जुगलकिशोर जी सा० मुख्तार के स्वर्गभी झुठलाने वालों को उन्होंने 'चैतन्यगुणविशिष्ट सूक्ष्माति- वास का समाचार पढ़ कर अत्यधिक दुःख हुमा । स्व.
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
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