SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 221
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २०० बनेकान्त मुख्तार सा० इस युग के मार्गदृष्टा थे, उन्होने अपने है। जैन समाज उनका जितना ऋणी है-वह उस ऋण जीवन के ५० से भी अधिक वर्ष साहित्य लेखन में समर्पित को चुकाने में शायद ही कभी समर्थ हो सकेगा। किये और जैन साहित्य, दर्शन एवं इतिहास में अन्वेषण एक साहित्यकार के रूप में वे हमारे श्रेष्ठ निर्देशक कर एक नया अध्याय प्रारम्भ किया। यद्यपि वे अाजकल थे। उनका सम्पूर्ण साहित्य, हिन्दी साहित्य की एक अपूर्व के समान डाक्टर नहीं थे लेकिन सैकडों डाक्टरों की निधि है।। सेवाएं उनकी साहित्यक सेवाओं पर न्योछावर की जा बालबन्द जी जैन बालचन्द जी जैन नवापारा राजिम : सकती हैं। उनकी अकेली मेरी भावना ही ऐसी कृति है जो सैकडों वर्षों तक उनकी कीति को चिरस्थायी रखेगी। इस महान् तपस्वी साहित्यसेवी महापुरुष को इस पा० समन्तभद्र पर उनकी खोज अपने ढंग की अद्भुत जीवन में रहकर अभी बहुत कुछ करना शेष था, पर जो खोज है। सचमुच आज की युवा पीढ़ी के विद्वानो मे जैन भी-जितना भी किया वह सब उस 'युगवीर' ने सर्वोपरि साहित्य के अन्वेषण एव खोज की ओर जो झुकाव हुआ किया । आपकी साहित्य-सेवा से सारी जैन समाज महान् है उसमें आदरणीय मुख्तार सा० का प्रमुख योग है। ऋणी है। इस महामना ने मरते क्षण तक साहित्य-सेवा से विराम नही लिया और उन अन्तिम क्षणो मे भी जैन उनके निधन से जैन समाज ने ही नहीं किन्तु भार सस्कृति के सरक्षण-सवर्धन की चिन्ता रखी। तीय समाज ने अपनी एक ऐसी निधि खो दी है जिसकी वास्तव में आपके साहित्यसेवी जीवन की बात ही निकट भविष्य मे पूर्ति होना सभव नहीं है । निराली रही, और इस साहित्य क्षेत्र मे आप जैसा रतनचन्द जी अन एम० ए० एम० एड लामटा प्रोजस्वी-प्रखर खोजी व्यक्ति होना असभव-सा है। परम श्रद्धेय श्री जुगलकिशोर जी मुरूनार की आ- पं० के० भुजबली शास्त्री धारवार : कस्मिक पार्थिव मृत्यु का समाचार सुन्कर हृदय दु:ख से श्री जुगलकिशोर जी 'युगवीर' के स्वर्गवास के समापरिपूर्ण हो गया। जैन सिद्धान्त एव जैन साहित्य के इस चार से मुझे अत्यन्त दु.ख हुआ। उनसे मेरा लगभग ४५ प्रणेता का पार्थिव शरीर अब इस प्रसार ससार मे नहीं वर्षों का सम्बन्ध रहा । वे मुझे बहुत मानते थे । धवलादि रहा, परन्तु उनकी कीर्ति, उनके अविस्मरणीय कार्य सदैव ग्रन्थो के परिशीलन के लिये वे जब आरा आये थे तब अमर रहेगे। जैन साहित्य को सार्वजनिक रूप में प्रस्तुत कई मास तक हम लोग साथ ही रहे। वे जब आरे से करने, उसके उद्धार, सम्पादन, भाष्य, टीका, एवं प्रकाशन चलने लगे तब उनके नेत्र सजल हो गये थे। साथ ही के निमित्त स्वर्गीय मुख्तार जी ने जो किया वह कभी साथ वे कहने लगे कि वस्तुतः आप वहाँ नहीं होते तो मैं भुलाया नही जा सकेगा। इतने दिन तक वहाँ नही ठहरता । जुगलकिशोरजी एक तन-मन-धन सभी का इस प्रकार का पवित्र अर्पण सूक्ष्म तलस्पर्शी विमर्शक, प्रौढ लेखक और सुबोध सम्पादक अद्वितीय है। समन्तभद्राश्रम (वीर सेवामन्दिर) इसका थे। जैन पुरातत्त्व एवं इतिहास पर उनकी विशेष मति महान् उदाहरण है। रही। उनके वियोग से खासकर दि० जैन समाज को समाज सुधार के रूप में मुख्तार जी की सेवाएँ अपूर्व प्राशातीत भारी क्षति हुई । खेद की बात है कि दि० जैन हैं । उन्होंने उस समय समाज सुधार का बीड़ा उठाया समाज विद्वानों की कदर नहीं जानता । समाज ने उनका जब कि समाज का एक वर्ग कट्टरतावादी था। पालोचक समुचित आदर नहीं किया। ५० वर्षों से धर्म, साहित्य के रूप में वे हमारे पादर के पात्र है। उनकी मालो- तथा समाज के लिये सर्वस्व समर्पित करने वाले विद्वानो चना सुधारात्मक है। सम्पादक के रूप मे वे हमारे गुरू की भी समाज कदर नहीं करता। हैं और एक महान् मानव के रूप में वे हमारे सच्चे पथ- डा० नेमिचन्द शास्त्री एम. ए. डी. लिट् पारा (विहार) प्रदर्शक है। एक साथ इतने महान् गुणों का समावेश दुर्लभ आदरणीय सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ सिद्धान्ताचार्य पं.
SR No.538021
Book TitleAnekant 1968 Book 21 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages314
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy